Friday 31 January 2014

भारत

भारत, संसदीय प्रणाली की सरकार वाला एक स्वतंत्र, प्रभुसत्तासम्पन्न, समाजवादी लोकतंत्रात्मक गणराज्य है। यह गणराज्य भारत के संविधान के अनुसार शासित है। भारत का संविधान संविधान सभा द्वारा 26 नवम्बर, 1949 को पारित हुआ तथा 26 जनवरी, 1950 से प्रभावी हुआ। 26 जनवरी का दिन भारत में गणतन्त्र दिवस के रूप में मनाया जाता है।
भारत का संविधान दुनिया का सबसे बडा लिखित संविधान है। इसमें 395 अनुच्छेद तथा 12 अनुसूचियां हैं। संविधान में सरकार के संसदीय स्‍वरूप की व्‍यवस्‍था की गई है जिसकी संरचना कुछ अपवादों के अतिरिक्त संघीय है। केन्‍द्रीय कार्यपालिका का सांविधानिक प्रमुख राष्‍ट्रपति है। भारत के संविधान की धारा 79 के अनुसार, केन्‍द्रीय संसद की परिषद् में राष्‍ट्रपति तथा दो सदन है जिन्‍हें राज्‍यों की परिषद् राज्‍यसभा तथा लोगों का सदन लोकसभा के नाम से जाना जाता है। संविधान की धारा 74 (1) में यह व्‍यवस्‍था की गई है कि राष्‍ट्रपति की सहायता करने तथा उसे सलाह देने के लिए एक मंत्रिपरिषद् होगी जिसका प्रमुख प्रधान मंत्री होगा, राष्‍ट्रपति इस मंत्रिपरिषद् की सलाह के अनुसार अपने कार्यों का निष्‍पादन करेगा। इस प्रकार वास्‍तविक कार्यकारी शक्ति मंत्रिपरिषद् में निहित है जिसका प्रमुख प्रधानमंत्री है।
मंत्रिपरिषद् सामूहिक रूप से लोगों के सदन (लोक सभा) के प्रति उत्तरदायी है। प्रत्‍येक राज्‍य में एक विधान सभा है। जम्मू कश्मीर, उत्तर प्रदेश, बिहार, महाराष्ट्र और कर्नाटक राज्‍यों में एक ऊपरी सदन है जिसे विधान परिषद् कहा जाता है। राज्‍यपाल राज्‍य का प्रमुख है। प्रत्‍येक राज्‍य का एक राज्‍यपाल होगा तथा राज्‍य की कार्यकारी शक्ति उसमें विहित होगी। मंत्रिपरिषद्, जिसका प्रमुख मुख्‍य मंत्री है, राज्‍यपाल को उसके कार्यकारी कार्यों के निष्‍पादन में सलाह देती है। राज्‍य की मंत्रिपरिषद् सामूहिक रूप से राज्‍य की विधान सभा के प्रति उत्तरदायी है।
संविधान की सातवीं अनुसूची में संसद तथा राज्‍य विधायिकाओं के बीच विधायी शक्तियों का वितरण किया गया है। अवशिष्‍ट शक्तियाँ संसद में विहित हैं। केन्‍द्रीय प्रशासित भू- भागों को संघराज्‍य क्षेत्र कहा जाता है।
इतिहास
द्वितीय विश्वयुद्ध की समाप्ति के बाद जुलाई १९४५ में ब्रिटेन ने भारत संबन्धी अपनी नई नीति की घोषणा की तथा भारत की संविधान सभा के निर्माण के लिए एक कैबिनेट मिशन भारत भेजा जिसमें ३ मंत्री थे। १५ अगस्त, १९४७ को भारत के आज़ाद हो जाने के बाद संविधान सभा की घोषणा हुई और इसने अपना कार्य ९ दिसम्बर १९४७ से आरम्भ कर दिया। संविधान सभा के सदस्य भारत के राज्यों की सभाओं के निर्वाचित सदस्यों के द्वारा चुने गए थे। जवाहरलाल नेहरू, डॉ राजेन्द्र प्रसाद, सरदार वल्लभ भाई पटेल, श्यामा प्रसाद मुखर्जी, मौलाना अबुल कलाम आजाद आदि इस सभा के प्रमुख सदस्य थे। इस संविधान सभा ने २ वर्ष, ११ माह, १८ दिन मे कुल १६६ दिन बैठक की। इसकी बैठकों में प्रेस और जनता को भाग लेने की स्वतन्त्रता थी। भारत के संविधान के निर्माण में डॉ भीमराव अंबेदकर ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, इसलिए उन्होंने संविधान का निर्माता कहा जाता है.
भारतीय संविधान की प्रकृति
संविधान प्रारूप समिति तथा सर्वोच्च न्यायालय ने इस को संघात्मक संविधान माना है परन्तु विद्वानों मे मतभेद है । अमेरीकी विद्वान इस को छदम-संघात्मक-संविधान कहते है हालांकि पूर्वी संविधानवेत्ता कहते है कि अमेरिकी संविधान ही एकमात्र संघात्मक संविधान नही हो सकता । संविधान का संघात्मक होना उसमे निहित संघात्मक लक्षणों पर निर्भर करता है । किन्तु माननिय सर्वोच्च न्यायालय(पि कन्नादासन वाद)ने इसे पुर्ण संघात्मक माना है ।
आधारभूत विशेषताएं
१ शक्ति विभाजन -यह भारतीय संविधान का सर्वाधिक महत्वपूर्ण लक्षण है , राज्य की शक्तियां केंद्रीय तथा राज्य सरकारों मे विभाजित होती है शक्ति विभाजन के चलते द्वेध सत्ता [केन्द्र-राज्य सत्ता ] होती हैदोनों सत्ताएँ एक-दूसरे के अधीन नही होती है, वे संविधान से उत्पन्न तथा नियंत्रित होती है दोनों की सत्ता अपने अपने क्षेत्रो मे पूर्ण होती है२ संविधान की सर्वोचता - संविधान के उपबंध संघ तथा राज्य सरकारों पर समान रूप से बाध्यकारी होते है [केन्द्र तथा राज्य शक्ति विभाजित करने वाले अनुच्छेद1 अनुच्छेद 54,55,73,162,2412 भाग -5 सर्वोच्च न्यायालय उच्च न्यायालय राज्य तथा केन्द्र के मध्य वैधानिक संबंध3 अनुच्छेद 7 के अंतर्गत कोई भी सूची4 राज्यो का संसद मे प्रतिनिधित्व5 संविधान मे संशोधन की शक्ति अनु 368इन सभी अनुच्छेदो मे संसद अकेले संशोधन नही ला सकती है उसे राज्यो की सहमति भी चाहिएअन्य अनुच्छेद शक्ति विभाजन से सम्बन्धित नही है3 लिखित सविन्धान अनिवार्य रूप से लिखित रूप मे होगा क्योंकि उसमे शक्ति विभाजन का स्पषट वर्णन आवश्यक है। अतः संघ मे लिखित संविधान अवश्य होगा4 सविन्धान की कठोरता इसका अर्थ है सविन्धान संशोधन मे राज्य केन्द्र दोनो भाग लेंगे5 न्यायालयो की अधिकारिता- इसका अर्थ है कि केन्द्र-राज्य कानून की व्याख्या हेतु एक निष्पक्ष तथा स्वतंत्र सत्ता पर निर्भर करेंगेविधि द्वारा स्थापित 1.1 न्यायालय ही संघ-राज्य शक्तियो के विभाजन का पर्यवेक्षण करेंगे1.2 न्यायालय सविन्धान के अंतिम व्याख्याकर्ता होंगे भारत मे यह सत्ता सर्वोच्च न्यायालय के पास है ये पांच शर्ते किसी सविन्धान को संघात्मक बनाने हेतु अनिवार्य हैभारत मे ये पांचों लक्षण सविन्धान मे मौजूद है अत्ः यह संघात्मक है परंतु
भारतीय संविधान मे कुछ विभेदकारी विशेषताए भी है
1 यह संघ राज्यों के परस्पर समझौते से नहीं बना है2 राज्य अपना पृथक संविधान नही रख सकते है, केवल एक ही संविधान केन्द्र तथा राज्य दोनो पर लागू होता है3 भारत मे द्वैध नागरिकता नही है। केवल भारतीय नागरिकता है4 भारतीय संविधान मे आपातकाल लागू करने के उपबन्ध है [352 अनुच्छेद] इसके लागू होने पर राज्य-केन्द्र शक्ति पृथक्करण समाप्त हो जायेगा तथा वह एकात्मक संविधान बन जायेगा। इस स्थिति मे केन्द्र-राज्यों पर पूर्ण सम्प्रभु हो जाता है5 राज्यों का नाम, क्षेत्र तथा सीमा केन्द्र कभी भी परिवर्तित कर सकता है [बिना राज्यों की सहमति से] [अनुच्छेद 3] अत: राज्य भारतीय संघ के अनिवार्य घटक नही हैं। केन्द्र संघ को पुर्ननिर्मित कर सकती है6 संविधान की 7 वीं अनुसूची मे तीन सूचियाँ हैं संघीय, राज्य, तथा समवर्ती। इनके विषयों का वितरण केन्द्र के पक्ष मे है6.1 संघीय सूची मे सर्वाधिक महत्वपूर्ण विषय हैं6.2 इस सूची पर केवल संसद का अधिकार है6.3 राज्य सूची के विषय कम महत्वपूर्ण हैं, 5 विशेष परिस्थितियों मे राज्य सूची पर संसद विधि निर्माण कर सकती है किंतु किसी एक भी परिस्थिति मे राज्य केन्द्र हेतु विधि निर्माण नहीं कर सकतेक1 अनु 249—राज्य सभा यह प्रस्ताव पारित कर दे कि राष्ट्र हित हेतु यह आवश्यक है [2\3 बहुमत से] किंतु यह बन्धन मात्र 1 वर्ष हेतु लागू होता हैक2 अनु 250— राष्ट्र आपातकाल लागू होने पर संसद को राज्य सूची के विषयों पर विधि निर्माण का अधिकार स्वत: मिल जाता हैक3 अनु 252—दो या अधिक राज्यों की विधायिका प्रस्ताव पास कर राज्य सभा को यह अधिकार दे सकती है [केवल संबंधित राज्यों पर]क4 अनु253--- अंतराष्ट्रीय समझौते के अनुपालन के लिए संसद राज्य सूची विषय पर विधि निर्माण कर सकती हैक5 अनु 356—जब किसी राज्य मे राष्ट्रपति शासन लागू होता है, उस स्थिति मे संसद उस राज्य हेतु विधि निर्माण कर सकती है7 अनुच्छेद 155 – राज्यपालों की नियुक्ति पूर्णत: केन्द्र की इच्छा से होती है इस प्रकार केन्द्र राज्यों पर नियंत्रण रख सकता है8 अनु 360 – वित्तीय आपातकाल की दशा मे राज्यों के वित्त पर भी केन्द्र का नियंत्रण हो जाता है। इस दशा मे केन्द्र राज्यों को धन व्यय करने हेतु निर्देश दे सकता है9 प्रशासनिक निर्देश [अनु 256-257] -केन्द्र राज्यों को राज्यों की संचार व्यवस्था किस प्रकार लागू की जाये, के बारे मे निर्देश दे सकता है, ये निर्देश किसी भी समय दिये जा सकते है, राज्य इनका पालन करने हेतु बाध्य है। यदि राज्य इन निर्देशों का पालन न करे तो राज्य मे संवैधानिक तंत्र असफल होने का अनुमान लगाया जा सकता है10 अनु 312 मे अखिल भारतीय सेवाओं का प्रावधान है ये सेवक नियुक्ति, प्रशिक्षण, अनुशासनात्मक क्षेत्रों मे पूर्णत: केन्द्र के अधीन है जबकि ये सेवा राज्यों मे देते है राज्य सरकारों का इन पर कोई नियंत्रण नहीं है11 एकीकृत न्यायपालिका12 राज्यों की कार्यपालिक शक्तियां संघीय कार्यपालिक शक्तियों पर प्रभावी नही हो सकती है।
संविधान की प्रस्तावना
संविधान के उद्देश्यों को प्रकट करने हेतु प्राय: उनसे पहले एक प्रस्तावना प्रस्तुत की जाती है। भारतीय संविधान की प्रस्तावना अमेरिकी संविधान से प्रभावित तथा विश्व मे सर्वश्रेष्ठ मानी जाती है। प्रस्तावना के माध्यम से भारतीय संविधान का सार, अपेक्षाएँ, उद्देश्य उसका लक्ष्य तथा दर्शन प्रकट होता है। प्रस्तावना यह घोषणा करती है कि संविधान अपनी शक्ति सीधे जनता से प्राप्त करता है इसी कारण यह ‘हम भारत के लोग’ इस वाक्य से प्रारम्भ होती है। केहर सिंह बनाम भारत संघ के वाद मे कहा गया था कि संविधान सभा भारतीय जनता का सीधा प्रतिनिधित्व नही करती अत: संविधान विधि की विशेष अनुकृपा प्राप्त नही कर सकता, परंतु न्यायालय ने इसे खारिज करते हुए संविधान को सर्वोपरि माना है जिस पर कोई प्रश्न नही उठाया जा सकता है।
संविधान के तीन भाग
संविधान के तीन प्रमुख भाग हैं। भाग एक में संघ तथा उसका राज्यक्षेत्रों के विषय में टिप्पणीं की गई है तथा यह बताया गया है कि राज्य क्या हैं और उनके अधिकार क्या हैं। दूसरे भाग में नागरिकता के विषय में बताया गया है कि भारतीय नागरिक कहलाने का अधिकार किन लोगों के पास है और किन लोगों के पास नहीं है। विदेश में रहने वाले कौन लोग भारतीय नागरिक के अधिकार प्राप्त कर सकते हैं और कौन नहीं कर सकते। तीसरे भाग में भारतीय संविधान द्वारा प्रदत्त मौलिक अधिकारों के विषय में विस्तार से बताया गया है।] संविधान भाग 4 नीति निर्देशक तत्व
भाग 3 तथा 4 मिल कर संविधान की आत्मा तथा चेतना कहलाते है क्यों कि किसी भी स्वतंत्र राष्ट्र के लिए मौलिक अधिकार तथा निति निर्देश देश के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। नीति निर्देशक तत्व जनतांत्रिक संवैधानिक विकास के नवीनतम तत्व हैं सर्वप्रथम ये आयरलैंड के संविधान मे लागू किये गये थे। ये वे तत्व है जो संविधान के विकास के साथ ही विकसित हुए है। इन तत्वॉ का कार्य एक जनकल्याणकारी राज्य की स्थापना करना है। भारतीय संविधान के इस भाग में नीति निर्देशक तत्वों का रूपाकार निश्चित किया गया है, मौलिक अधिकार तथा नीति निर्देशक तत्व मे भेद बताया गया है और नीति निदेशक तत्वों के महत्व को समझाया गया है।

भाग 4 क मूल कर्तव्य

ये रूस से प्रेरित होकर सन्विधान के भाग ४ (क) के अनुच्छेद ५१ - अ मे रखा गया है । ये कुल ११ है । इन्हे ४२ वे सन्विधान सन्शोधन द्वारा जोडा गया है ।
(भाग 5 संघ]
पाठ 1 संघीय कार्यपालिका
संघीय कार्यपालिका मे राष्ट्रपति ,उपराष्ट्रपति,मंत्रिपरिषद तथा महान्यायवादी आते है। रामजवाया कपूर बनाम पंजाब राज्य वाद मे सुप्रीम कोर्ट ने कार्यपालिका शक्ति को निम्न प्रकार से परिभाषित किया है-
1 विधायिका न्यायपालिका के कार्यॉ को पृथक करने के पश्चात सरकार का बचा कार्य ही कार्यपालिका है।
2 कार्यपालिका मॅ देश का प्रशासन, विधियॉ का पालन सरकारी नीति का निर्धारण ,विधेयकॉ की तैयारी करना ,कानून व्यव्स्था बनाये रखना सामाजिक आर्थिक कल्याण को बढावा देना विदेश नीति निर्धारित करना आदि आता है।
राष्ट्रपति
संघ का कार्यपालक अध्यक्ष है संघ के सभी कार्यपालक कार्य उस के नाम से किये जाते है अनु 53 के अनुसार संघ की कार्यपालक शक्ति उसमॅ निहित है इन शक्तियॉ/कार्यों का प्रयोग क्रियांवय्न राष्ट्रपति सविन्धान के अनुरूप ही सीधे अथवा अधीनस्थ अधिकारियॉ के माध्यम से करेगा। वह सशस्त्र सेनाओं का सर्वोच्च सेनानायक भी होता है,सभी प्रकार के आपातकाल लगाने व हटाने वाला युद्ध शांति की घोषणा करने वाला होता है वह देश का प्रथम नागरिक है तथा राज्य द्वारा जारी वरीयता क्रम मे उसका सदैव प्रथम स्थान होता है। भारतीय राष्ट्रपति का भारतीय नागरिक होना आवश्यक है तथा उसकी आयु कम से कम ३५ वर्ष होनी चाहिए। राष्ट्रपति का चुनाव, उस पर महाभियोग की अवस्थाएँ, उसकी शक्तियाँ, संविधान के अन्तर्गत राष्ट्रपति की स्थिति, राष्ट्रपति की संसदीय शक्ति तथा राष्ट्रपति की विवेकाधीन शक्तियों का वर्णन इस अध्याय में किया गया है।
उपराष्ट्रपति
मंत्रिपरिषद
संसदीय लोकतंत्र के मह्त्वपूर्ण सिद्धांत 1। राज्य प्रमुख, सरकार प्रमुख न होकर मात्र संवैधानिक प्रमुख ही होता है2. वास्तविक कार्यपालिका शक्ति, मंत्रिपरिषद जो कि सामूहिक रूप से संसद के निचले सदन के सामने उत्तरदायी होगा के पास होगी3 मंत्रिपरिषद के सद्स्य संसद के सद्स्यों से लिए जायेंगे परिषद का गठन

1। प्रधानमंत्री के पद पे आते ही यह परिषद गठित हो जाती है यह आवश्यक नही है कि उसके साथ कुछ अन्य मंत्री भी शपथ ले केवल प्रधानमंत्री ही मंत्रिपरिषद होगा2 मंत्रिपरिषद की सद्स्य संख्या पर मौलिक संविधान मे कोई रोक नही थी किंतु 91 वे संशोधन के द्वारा मंत्रिपरिषद की संख्यालोकसभा के सद्स्य संख्या के 15% तक सीमित कर दी गयी वही राज्यों मेभी मंत्रीपरिषद कीसंख्या विधानसभा के 15% से अधिक नही होगी पंरंतु न्यूनतम 12 मंत्री होंगे मंत्रियों की श्रेणियाँ

संविधान मंत्रियों की श्रेणी निर्धारित नही करता यह निर्धारण अंग्रेजी प्रथा के आधार पर किया गया हैकुल तीड़्न प्रकार के मंत्री माने गये है
1. कैबिनेट मंत्री—सर्वाधिक वरिष्ठ मंत्री है उनसे ही कैबिनेट का गठन होता है मंत्रालय मिलने पर वे उसके अध्यक्ष होते है उनकी सहायता हेतु राज्य मंत्री तथा उपमंत्री होते है उन्हें कैबिनेट बैठक मे बैठने का अधिकार होता है अनु 352 उन्हें मान्यता देता है
कृप्या सभी कैबिनेट मंत्रालयों ,राज्य मंत्रालय की सूची पृथक से जोड दे
2. राज्य मंत्री द्वितीय स्तर के मंत्री होते है सामान्यत उनहे मंत्रालय का स्वतंत्र प्रभार नही मिलता किंतु प्रधानमंत्री चाहे तो यह कर सकता है उन्हें कैबिनेट बैठक मे आने का अधिकार नही होता।
3. उपमंत्री कनिष्ठतम मंत्री है उनका पद सृजन कैबिनेट या राज्य मंत्री को सहायता देने हेतु किया जाता है वे मंत्रालय या विभाग का स्वतंत्र प्रभार भी नही लेते है।
4। संसदीय सचिव सत्तारूढ दल के संसद सद्स्य होते है इस पद पे नियुक्त होने के पश्चात वे मंत्री गण की संसद तथा इसकी समितियॉ मे कार्य करने मे सहायता देते है वे प्रधान मंत्री की इच्छा से पद ग्रहण करते है वे पद गोपनीयता की शपथ भी प्रधानमंत्री के द्वारा ग्रहण करते है वास्तव मे वे मंत्री परिषद के सद्स्य नही होते है केवल मंत्री का दर्जा प्राप्त होता है।

मंत्रिमंडल

मंत्रि परिषद एक संयुक्त निकाय है जिसमॆं 1,2,या 3 प्रकार के मंत्री होते है यह बहुत कम मिलता है चर्चा करता है या निर्णय लेता है वहीं मंत्रिमंडल मे मात्र कैबिनेट प्रकार के मंत्री होते है यह समय समय पर मिलती है तथा समस्त महत्वपूर्ण निर्णय लेती है इस के द्वारा स्वीकृत निर्णय अपने आप परिषद द्वारा स्वीकृत निर्णय मान लिये जाते है यही देश का सर्वाधिक मह्त्वपूर्ण निर्णय लेने वाला निकाय है
सम्मिलित उत्तरदायित्व अनु 75[3] के अनुसार मंत्रिपरिषद संसद के सामने सम्मिलित रूप से उत्तरदायी है इसका लक्ष्य मंत्रिपरिषद मे संगति लाना है ताकि उसमे आंतरिक रूप से विवाद पैदा ना हो।
व्यक्तिगत उत्तरदायित्व अनु 75[2] के अनुसार मंत्री व्यक्तिगत रूप से राष्ट्रपति के सामने उत्तरदायी होते है किंतु यदि प्रधानमंत्री की सलाह ना हो तो राष्ट्रपति मंत्री को पद्च्युत नही कर सकता है।
भारत का महान्यायवादी
भारत का महान्यायवादी संसद के किसी भी सदन का सदस्य न रहते हुए भी संसद की कार्रवाई में भाग ले सकता है ।
प्रधानमंत्री
प्रधानमंत्री की दशा समानों मे प्रधान की तरह है वह कैबिनेट का मुख्य स्तंभ है मंत्री परिषद का मुख्य सद्स्य भी वही है अनु 74 स्पष्ट रूप से मंत्रिपरिषद की अध्यक्षता तथा संचालन हेतु प्रधानम्ंत्री की उपस्तिथि आवश्यक मानता है उसकी मृत्यु या त्यागपत्र की द्शा मे समस्त परिषद को पद छोडना पडता है वह अकेले ही मंत्री परिषद का गठन करता है राष्ट्रपति मंत्री गण की नियुक्ति उस की सलाह से ही करता है मंत्री गण के विभाग का निर्धारण भी वही करता है कैबिनेट के कार्य का निर्धारण भी वही करता है देश के प्रशासन को निर्देश भी वही देता है सभी नीतिगत निर्णय वही लेता है राष्ट्रपति तथा मंत्री परिषद के मध्य संपर्क सूत्र भी वही है परिषद का प्रधान प्रवक्ता भी वही है परिषद के नाम से लडी जाने वाली संसदीय बहसॉ का नेतृत्व करता है संसद मे परिषद के पक्ष मे लडी जा रही किसी भी बहस मे वह भाग ले सकता है मन्त्री गण के मध्य समन्वय भी वही करता है वह किसी भी मंत्रालय से कोई भी सूचना मंगवा सकता है इन सब कारणॉ के चलते प्रधानम्ंत्री को देश का सबसे मह्त्वपूर्ण राजनैतिक व्यक्तित्व माना जाता है
प्रधानमंत्री सरकार के प्रकार
प्रधानमंत्री सरकार संसदीय सरकार का ही प्रकार है जिसमे प्रधानमंत्री मंत्रि परिषद का नेतृत्व करता है वह कैबिनेट की निर्णय लेने की क्षमता को प्रभावित करता है वह कैबिनेट से अधिक शक्तिशाली है उसके निर्णय ही कैबिनेट के निर्णय है देश की सामान्य नीतियाँ कैबिनेट द्वारा निर्धारित नहीं होती है यह कार्य प्रधानमंत्री अपने निकट सहयोगी चाहे वो मंत्रि परिषद के सद्स्य ना हो की सहायता से करता है जैसे कि इंदिरा गाँधी अपने किचन कैबिनेट की सहायता से करती थीप्रधानमंत्री सरकार के लाभ
1 तीव्र तथा कठोर निर्णय ले सकती है
2 देश को राजनैतिक स्थाईत्व मिलता है
इससे कुछ हानि भी है
1 कैबिनेट ऐसे निर्णय लेती है जो सत्ता रूढ दल के हित मे हो न कि देश के हित मे
2 इस के द्वारा गैर संवैधानिक शक्ति केन्द्रों का जन्म होता है
कैबिनेट सरकार
संसदीय सरकार का ही प्रकार है इस मे नीति गत निर्णय सामूहिक रूप से कैबिनेट [मंत्रि मंडल ] लेता है इस मे प्रधानमंत्री कैबिनेट पे छा नही जाता है इस के निर्णय सामान्यत संतुलित होते है लेकिन कभी कभी वे इस तरह के होते है जो अस्पष्ट तथा साहसिक नही होते है। 1989 के बाद देश मे प्रधानमंत्री प्रकार का नही बल्कि कैबिनेट प्रकार का शासन रहा है।
कामचलाऊ सरकार
बहुमत समाप्त हो जाने के बाद जब मंत्रि परिषद त्यागपत्र दे देती है तब कामचलाऊ सरकार अस्तित्व मे आती है अथवा प्रधानमंत्री की मृत्यु/ त्यागपत्र की दशा मे यह स्थिति आती है। यह सरकार अंतरिम प्रकृति की होती है यह तब तक स्थापित रहती है जब तक नयी मंत्रिपरिषद शपथ ना ले ले यह इसलिए काम करती है ताकि अनु 74 के अनुरूप एक मंत्रिपरिषद राष्ट्रपति की सहायता हेतु रहे। वी।एन.राव बनाम भारत संघ वाद मे सुप्रीमकोर्ट ने माना था कि मंत्रि परिषद सदैव मौजूद रहनी चाहिए यदि यह अनुपस्थित हुई तो राष्ट्रपति अपने काम स्वंय करने लगेगा जिस से सरकार का रूप बदल कर राष्ट्रपति हो जायेगा जो कि संविधान के मूल ढाँचे के खिलाफ होगा। यह कामचलाऊ सरकार कोई भी वित्तीय/नीतिगत निर्णय नही ले सकती है क्योंकि उस समय लोक सभा मौजूद नही रहती है वह केवल देश का दैनिक प्रशासन चलाती है। इस प्रकार की सरकार के सामने सबसे विकट स्थिति तब आ गयी थी जब अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार को 1999 मे कारगिल युद्ध का संचालन करना पडा था। किंतु विकट दशा मे इस प्रकार की सरकार भी कोई भी नीति निर्णय ले सकती है। सुस्थापित परंपराए

एक संसदीय सरकार में ये पंरपराए ऐसी प्रथाएँ मानी जाती है जो सरकार के सभी अंगों पर वैधानिक रूपसे लागू मानी जाती है उनका वर्णन करने के लिये कोई विधान नहीं होता है ना ही संविधान मे किसी देश के शासन के बारे मे पूर्ण वर्णन किया जा सकता है संविधान निर्माता भविष्य मे होने वाले विकास तथा देश के शासन पर उनके प्रभाव का अनुमान नहीं लगा सकते अतः वे उनके संबंध मे संविधान में प्रावधान भी नहीं कर सकते हैइस तरह संविधान एक जीवित शरीर तो है परंतु पूर्ण वर्णन नही है इस वर्णन मे बिना संशोधन लाये परिवर्तन भी नहीं हो सकता है वही पंरपराए संविधान के प्रावधानॉ की तरह वैधानिक नहीं होती वे सरकार के संचालन में स्नेहक का कार्य करते है तथा सरकार का प्रभावी संचालन करने मे सहायक हैपंरपराए इस लिए पालित की जाती है क्योंकि उनके अभाव मे राजनैतिक कठिनाइया आ सकती है इसी कारण उन्हें संविधान का पूरक माना जाता हैब्रिटेन मे हम इनका सबसे विकसित तथा प्रभावशाली रूप देख सकते हैइनके दो प्रकार है प्रथम वे जो संसद तथा मंत्रिपरिषद के मध्य संयोजन का कार्य करती है यथा अविश्वास प्रस्ताव पारित होने पर परिषद का त्यागपत्र दे देनाद्वितीय वे जो विधायिका की कार्यवाहिय़ों से संबंधित है जैसे किसी बिल का तीन बार वाचन संसद के तीन सत्र राष्ट्रपति द्वारा धन बिल को स्वीकृति देना उपस्पीकर का चुनाव विपक्ष से करना जब स्पीकर सत्ता पक्ष से चुना गया हो आदिसरकार के संसदीय तथा राष्ट्रपति प्रकारसंसदीय शासन के समर्थन मे तर्क1। राष्ट्रपतीय शासन मे राष्ट्रपति वास्तविक कार्य पालिका होता है जो जनता द्वारा निश्चित समय के लिये चुना जाता है वह विधायिका के प्रति उत्तरदायी भी नेही होता है उसके मंत्री भी विधायिका के सदस्य नही होते है तथा उसी के प्रति उत्ततदायी होंगे न कि विधायिका के प्रतिवही संसदीय शासन मे शक्ति मंत्रि परिषद के पास होती है जो विधायिका के प्रति उत्तरदायी होती है2. भारत की विविधता को देखते हुए संसदीय शासन ज्यादा उपयोगी है इस मे देश के सभी वर्गों के लोग मंत्रि परिषद मे लिये जा सकते है3. इस् शासन मे संघर्ष होने [विधायिका तथा मंत्रि परिषद के मध्य] की संभावना कम रहती है क्यॉकि मंत्री विधायिका के सदस्य भी होते है4 भारत जैसे विविधता पूर्ण देश मे सर्वमान्य रूप से राष्ट्रपति का चुनाव करना लगभग असंभव है5 मिंटे मार्ले सुधार 1909 के समय से ही संसदीय शासन से भारत के लोग परिचय रखते है भाग पाँच, अध्याय 2, संसद
राज्य सभा
राज्यों को संघीय स्तर पर प्रतिनिधित्व देने वाली सभा है जिसका कार्य संघीय स्तर पर राज्य हितॉ का संरक्षण करना है। इसे संसद का दूसरा सदन कह्ते है इसके सदस्य दो प्रकार से निर्वाचित होते है राज्यॉ से 238 को निर्वाचित करते है तथा राष्ट्रपति द्वारा 12 को मनोनीत करते है। वर्तमान मे यह संख्या क्रमश 233 ,12 है ये सद्स्य 6 वर्ष हेतु चुने जाते है इनका चयन आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली के द्वारा होता है मत एकल संक्रमणीय प्रणाली से डाले जाते है। मत खुले डाले जाते है.सद्स्य जो निर्वाच्त होना चाहते है देश के किसी भी संसदीय क्षेत्र से एक निर्वाचक के रूप मे पंजीकृत होने चाहिए।
राज्यसभा की विशेष शक्तियाँ
राज्यसभा के पास तीन विशेष शक्तिया होती है
अनु. 249 के अंतर्गत राज्य सूची के विषय पर 1 वर्ष का बिल बनाने का हक
अनु. 312 के अंतर्गत नवीन अखिल भारतीय सेवा का गठन 2/3 बहुमत से करना
अनु. 67 ब उपराष्ट्रपति को हटाने वाला प्रस्ताव राज्यसभा मे ही लाया जा सकेगा
राज्य सभा का संघीय स्वरूप
राज्य सभा का गठन ही राज्य परिषद के रूप मे संविधान के संघीय स्वरूप का प्रतिनिधित्व देने के लिये हुआ था
राज्य सभा के सद्स्य मंत्रि परिषद के सदस्य बन सकते है जिससे संघीय स्तर पर निर्णय लेने मे राज्य का प्रतिनिधित्व होगा
राष्ट्रपति के निर्वाचन तथा महाभियोग तथा उपराष्ट्रपति के निर्वाचन मे समान रूप से भाग लेती है
अनु 249,312 भी राज्य सभा के संघीय स्वरूप तथा राज्यॉ के संरक्षक रूप मे उभारते है
सभी संविधान संशोधन बिल भी इस के द्वारा पृथक सभा कर तथा 2/3 बहुमत से पास होंगे
संसद की स्वीकृति चाहने वाले सभी प्रस्ताव जो कि आपातकाल से जुडे हो भी राज्यसभा द्वारा पारित होंगे
राज्य सभा के गैर संघीय तत्व
संघीय क्षेत्रॉ को भी राज्य सभा मे प्रतिनिधित्व मिलता है जिससे इसका स्वरूप गैर संघीय हो जाता है
राज्यॉ का प्रतिनिधित्व राज्यॉ की समानता के आधार पे नही है जैसा कि अमेरिका मे है वहाँ प्रत्येक राज्य कोसीनेट मे दो स्थान मिलते है किंतु भारत मे स्थानॉ का आवंटन आबादी के आधार पे किया गया है
राज्य सभा मे मनोनीत सद्स्यों का प्रावधान है
राज्य सभा का मह्त्व
किसी भी संघीय शासन मे संघीय विधायिका का ऊपरी भाग संवैधानिक बाध्यता के चलते राज्य हितॉ की संघीयस्तर पर रक्षा करने वाला बनाया जाता है इसी सिद्धांत के चलते राज्य सभा का गठन हुआ है ,इसी कारण राज्य सभा को सदनॉकी समानता के रूप मे देखा जाता है जिसका गठन ही संसद के द्वितीय सदन के रूप मे हुआ है
यह जनतंत्र की मांग है कि जहाँ लोकसभा सीधे जनता द्वारा चुनी जाती है विशेष शक्तियॉ का उपभोग करती है,लोकतंत्र के सिद्धांत के अनुरूप मंत्रिपरिषद भी लोकसभा के प्रति उत्तरदायी होने के लिये बाध्य करते है किंतु ये दो कारण किसी भी प्रकारसे राज्यसभा का मह्त्व कम नही करते है
राज्यसभा का गठन एक पुनरीक्षण सदन के रूप मे हुआ है जो लोकसभा द्वारा पास किये गये प्रस्तावॉ की पुनरीक्षा करेयह मंत्रिपरिषद मे विशेषज्ञों की कमी भी पूरी कर सकती है क्योंकि कम से कम 12 विशेषज्ञ तो इस मे मनोनीत होते ही है
आपातकाल लगाने वाले सभी प्रस्ताव जो राष्ट्रपति के सामने जाते है राज्य सभा द्वारा भी पास होने चाहिये
राज्य सभा का महत्व यह है कि जहाँ लोकसभा सदैव सरकार से सहमत होती है जबकि राज्यसभा सरकार की नीतिय़ों का निष्पक्ष मूल्याँकन कर सकती है
मात्र नैतिक प्रभाव सरकार पे डालती है किंतु यह लोकस्भा के प्रभाव की तुलना मे ज्यादा होता है
राज्य सभा के पदाधिकारी उनका निर्वाचन ,शक्ति ,कार्य, उत्तरदायित्व तथा पदच्युति
लोकसभा
यह संसद का लोकप्रिय सदन है जिसमे निर्वाचित मनोनीत सद्स्य होते है संविधान के अनुसार लोकसभा का विस्तार राज्यॉ से चुने गये 530, संघ क्षेत्र से चुने गये 20 और राष्ट्रपति द्वारा मनोनीत 2 आंग्ल भारतीय सदस्यॉ तक होगा वर्तमान मे राज्यॉ से 530 ,संघ क्षेत्रॉसे 13 तथा 2 आंग्ल भारतीय सद्स्यॉ से सदन का गठन किया गया हैकुछ स्थान अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति हेतु आरक्षित हैप्रत्येक राज्य को उसकी आबादी के आधार पर सद्स्य मिलते है अगली बार लोकसभा के सदस्यॉ की संख्या वर्ष 2026 मे निर्धारित किया जायेगा वर्तमान मे यह 1971 की जनसंख्या पे आधारित है इससे पहले प्रत्येक दशक की जनगणना के आधार पर सदस्य स्थान निर्धारित होते थे यह कार्य बकायदा 84 वे संविधान संशोधन से किया गया था ताकि राज्य अपनी आबादी के आधार पर ज्यादा से ज्यादा स्थान प्राप्त करने का प्रयास नही करेलोकसभा की कार्यावधि 5 वर्ष है पर्ंतु इसे समय से पूर्व भंग किया जा सकता है
लोकसभा की विशेष शक्तियाँ
मंत्री परिषद केवल लोकस्भा के प्रति उत्तरदायी है अविश्वास प्रस्ताव सरकार के विरूद्ध केवल यही लाया जा सकता है
धन बिल पारित करने मे यह निर्णायक सदन है
राष्ट्रीय आपातकाल को जारी रखने वाला प्रस्ताव केवल लोकस्भा मे लाया और पास किया जायेगा
लोकसभा के पदाधिकारी
स्पीकर
लोकसभा का अध्यक्ष होता है इसका चुनाव लोकसभा सदस्य अपने मध्य मे से करते है इसके दो कार्य है1. लोकसभा की अध्यक्षता करना उस मे अनुसाशन गरिमा तथा प्रतिष्टा बनाये रखना इस कार्य हेतु वह किसी न्यायालय के सामने उत्तरदायी नही होता है2. वह लोकसभा से संलग्न सचिवालय का प्रशासनिक अध्यक्ष होता है किंतु इस भूमिका के रूप मे वह न्यायालय के समक्ष उत्तरदायी होगाउसकी विशेष शक्तियाँ1. दोनो सदनॉ का सम्मिलित सत्र बुलाने पर स्पीकर ही उसका अध्यक्ष होगा उसके अनुउपस्थित होने पर उपस्पीकर तथा उसके भी न होने पर राज्यसभा का उपसभापति अथवा सत्र द्वारा नांमाकित कोई भी सदस्य सत्र का अध्यक्ष होता है2. धन बिल का निर्धारण स्पीकर करता है यदि धन बिल पे स्पीकर साक्ष्यांकित नही करता तो वह धन बिल ही नही माना जायेगा उसका निर्धारण अंतिम तथा बाध्यकारी होगा3. सभी संसदीय समितियाँ उसकी अधीनता मे काम करती है उसके किसी समिति का सदस्य चुने जाने पर वह उसका पदेन अध्यक्ष होगा4. लोकसभा के विघटन होने पर भी उसका प्रतिनिधित्व करने के लिये स्पीकर पद पर कार्य करता रहता है नवीन लोकसभा चुने जाने पर वह अपना पद छोड देता है
स्पीकर प्रोटेम [कार्यवाहक]
जब कोई नवीन लोकसभा चुनी जाती है तब राष्ट्रपति उस सदस्य को कार्यवाहक स्पीकर नियुक्त करता है जिसको संसद मे सदस्य होने का सबसे लंबा अनुभव होता है वह राष्ट्रपति द्वारा शपथ ग्रहण करता हैउसके दो कार्य होते है1. संसद सदस्यॉ को शपथ दिलवाना2. नवीन स्पीकर चुनाव प्रक्रिया का अध्यक्ष भी वही बनता है
उपस्पीकर
विधायिका[संसद - राज्य विधायिका] मे बहुमत के प्रकार
1. सामान्य बहुमत – उपस्थित सदस्यॉ तथा मतदान करने वालॉ के 50% से अधिक सदस्य ही सामान्य बहुमत है इस बहुमत का सदन की कुल सदस्य संख्या से कोई संबंध नही होता हैभारतीय संविधान के अनुसार अविश्वास प्रस्ताव, विश्वास प्रस्ताव, कामरोको प्रस्ताव, सभापति ,उपसभापति तथा अध्यक्षॉ के चुनाव हेतु सदन के यदि संविधान संशोधन का प्रस्ताव राज्य विधायिकाओं को भेजना हो ,सामान्य बिल , धन बिल, राष्ट्रपति शासन ,वित्तीय आपातकाल लगाने हेतु सामान्य बहुमत को मान्यता प्राप्त है यदि बहुमत के प्रकार का निर्देश न होने पर उसे सदैव सामान्य बहुमत समझा जाता है2. पूर्ण बहुमत – सदन के 50% से अधिक सदस्यॉ का बहुमत [खाली सीटे भी गिनी जाती है] लोकसभा मे 273, राज्यसभा मे 123 सदस्यॉ का समर्थन . इसका राजनैतिक मह्त्व है न कि वैधानिक महत्व3. प्रभावी बहुमत- मतदान के समय उपस्थित सदन के 50% से अधिक सदस्यॉ [खाली सीटॉ को छोडकर] यह तब प्रयोग आती है जब लोक सभा अध्यक्ष उपाध्यक्ष या राज्यसभा के उपसभापति को पद से हटाना हो या जब राज्यसभा उपराष्ट्रपति को पद से हटाने हेतु मतदान करे4.विशेष बहुमत – प्रथम तीनो प्रकार के बहुमतॉ से भिन्न होता है इसके तीन प्रकार है[क] अनु 249 के अनुसार- उपस्थित तथा मतदान देने वालॉ के 2/3 संख्या को विशेष बहुमत कहा गया है[ख] अनु 368 के अनुसार – संशोधन बिल सदन के उपस्थित तथा सदन मे मत देने वालो के 2/3 संख्या जो कि सदन के कुल सदस्य संख्या का भी बहुमत हो [लोकसभा मे 273 सदस्य]इस बहुमत से संविधान संशोधन ,न्यायधीशॉ को पद से हटाना तथा राष्ट्रीय आपातकाल लगाना ,राज्य विधान सभा द्वारा विधान परिषद की स्थापना अथवा विच्छेदन की मांंग के प्रस्ताव पारित किये जाते है[ग] अनु 61 के अनुसार – केवल राष्ट्रपति के महाभियोग हेतु सदन के कुल संख्या का कम से कम 2/3 [लोकसभा मे 364 सदस्य होने पर]
लोकसभा के सत्र
– अनु 85 के अनुसार संसद सदैव इस तरह से आयोजित की जाती रहेगी कि संसद के दो सत्रॉ के मध्य 6 माससे अधिक अंतर ना हो पंरपरानुसार संसद के तीन नियमित सत्रॉ तथा विशेष सत्रों मे आयोजित की जाती हैसत्रॉ का आयोजन राष्ट्रपति की विज्ञप्ति से होता है1. बजट सत्र वर्ष का पहला सत्र होता है सामान्यत फरवरी मई के मध्य चलता है यह सबसे लंबा तथा महत्वपूर्ण सत्र माना जाता है इसी सत्र मे बजट प्रस्तावित तथा पारित होता है सत्र के प्रांरभ मे राष्ट्रपति का अभिभाषण होता है2. मानसून सत्र जुलाई अगस्त के मध्य होता है3. शरद सत्र नवम्बर दिसम्बर के मध्य होता है सबसे कम समयावधि का सत्र होता हैविशेष सत्र – इस के दो भेद है 1. संसद के विशेष सत्र.2. लोकसभा के विशेष सत्रसंसद के विशेष सत्र – मंत्रि परिषद की सलाह पर राष्ट्रपति इनका आयोजन करता है ये किसी नियमित सत्र के मध्य अथवा उससे पृथक आयोजित किये जाते हैएक विशेष सत्र मे कोई विशेष कार्य चर्चित तथा पारित किया जाता है यदि सदन चाहे भी तो अन्य कार्य नही कर सकता हैलोकसभा का विशेष सत्र – अनु 352 मे इसका वर्णन है किंतु इसे 44 वें संशोधन 1978 से स्थापित किया गया है यदिलोकसभा के कम से कम 1/10 सद्स्य एक प्रस्ताव लाते है जिसमे राष्ट्रीय आपातकाल को जारी न रखनेकी बात कही गयी है तो नोटिस देने के 14 दिन के भीतर सत्र बुलाया जायेगासत्रावसान – मंत्रिपरिषद की सलाह पे सदनॉ का सत्रावसान राष्ट्रपति करता है इसमे संसद का एक सत्र समाप्तहो जाता है तथा संसद दुबारा तभी सत्र कर सकती है जब राष्ट्रपति सत्रांरभ का सम्मन जारी कर दे सत्रावसान की दशा मे संसद केसमक्ष लम्बित कार्य समाप्त नही हो जाते हैस्थगन – किसी सदन के सभापति द्वारा सत्र के मध्य एक लघुवधि का अन्तराल लाया जाता है इस सेसत्र समाप्त नही हो जाता ना उसके समक्ष लम्बित कार्य समाप्त हो जाते है यह दो प्रकार का होता है1. अनिश्चित कालीन 2. जब अगली मीटिग का समय दे दिया जाता हैलोकसभा का विघटन— राष्ट्रपति द्वारा मंत्रि परिष्द की सलाह पर किया है इससे लोकसभा का जीवन समाप्त हो जाता है इसके बाद आमचुनाव ही होते है विघटन के बाद सभी लंबित कार्य जो लोकसभा के समक्ष होते है समाप्त हो जाते है किंतु बिल जो राज्यसभा मे लाये गये हो और वही लंबित होते है समाप्त न्ही होते या या बिल जो राष्ट्रपति के सामने विचाराधीन हो वे भी समापत नही होते है या राष्ट्रपति संसद के दोनॉ सदनॉ की लोकसभा विघटन से पूर्व संयुक्त बैठक बुला ले
विधायिका संबंधी कार्यवाही
/प्रक्रियाबिल/विधेयक के प्रकार कुल 4 प्रकार होते है
1.सामान्य बिल
– इसकी 6 विशेषताएँ है
1. परिभाषित हो
2. राष्ट्रपति की अनुमति हो
3. बिल कहाँ प्रस्तावित हो
4. सदन की विशेष शक्तियॉ मे आता हो
5.कितना बहुमत चाहिए6. गतिवरोध पैदा होनायह वह विधेयक होता है जो संविधान संशोधन धन या वित्त विधेयक नही है यह संसद के किसी भी सदन मे लाया जा सकता है यदि अनुच्छेद 3 से जुडा ना हो तो इसको राष्ट्रप्ति की अनुंशसा भी नही चाहिएइस बिल को पारित करने मे दोनो सदनॉ की विधायी शक्तिय़ाँ बराबर होती है इसे पारित करने मे सामान्य बहुमतचाहिए एक सदन द्वारा अस्वीकृत कर देने पे यदि गतिवरोध पैदा हो जाये तो राष्ट्रपति दोनो सद्नॉ की संयुक्त बैठक मंत्रि परिषद कीसलाह पर बुला लेता हैराष्ट्रपति के समक्ष यह विधेयक आने पर वह इस को संसद को वापस भेज सकता है या स्वीकृति दे सकता है या अनिस्चित काल हेतु रोक सकता है
धन बिल
विधेयक जो पूर्णतः एक या अधिक मामलॉ जिनका वर्णन अनुच्छेद 110 मे किया गया हो से जुडा हो धन बिल कहलाता है ये मामलें है1. किसी कर को लगाना,हटाना, नियमन2. धन उधार लेना या कोई वित्तेय जिम्मेदारी जो भारत सरकार ले3. भारत की आपात/संचित निधि से धन की निकासी/जमा करना4.संचित निधि की धन मात्रा का निर्धारण5. ऐसे व्यय जिन्हें भारत की संचित निधि पे भारित घोषित करना हो6. संचित निधि मे धन निकालने की स्वीकृति लेना7. ऐसा कोई मामला लेना जो इस सबसे भिन्न होधन बिल केवल लोकसभा मे प्रस्तावित किए जा सकते है इसे लाने से पूर्व राष्ट्रपति की स्वीकृति आवशय्क है इन्हें पास करने के लिये सदन का सामान्य बहुमत आवश्यक होता हैधन बिल मे ना तो राज्य सभा संशोधन कर सकती है न अस्वीकारजब कोई धन बिल लोकसभा पारित करती है तो स्पीकर के प्रमाणन के साथ यह बिल राज्यसभा मे ले जाया जाता है राज्यसभा इसबिल को पारित कर सकती है या 14 दिन के लिये रोक सकती है किंतु उस के बाद यह बिल दोनॉसदनॉ द्वारा पारित माना जायेगा राज्य सभा द्वारा सुझाया कोई भी संशोधन लोक सभा की इच्छा पे निर्भर करेगा कि वो स्वीकार करेया ना करे जब इस बिल को राष्ट्रपति के पास भेजा जायेगा तो वह सदैव इसे स्वीकृति दे देगाफायनेसियल बिल वह विधेयक जो एक या अधिक मनीबिल प्रावधानॉ से पृथक हो तथा गैर मनी मामलॉ से भी संबधित हो एक फाइनेंस विधेयक मे धन प्रावधानॉ के साथ साथ सामान्य विधायन से जुडे मामले भी होते है इस प्रकार के विधेयक को पारित करने की शक्ति दोनो सदनॉ मे समान होती
संविधान संशोधन विधेयक
अनु 368 के अंतर्गत प्रस्तावित बिल जो कि संविधान के एक या अधिक प्रस्तावॉ को संशोधित करना चाहता है संशोधन बिल कहलाता है यह किसी भी संसद सदन मे बिना राष्ट्रपति की स्वीकृति के लाया जा सकता है इस विधेयक को सदन द्वारा कुल उपस्थित सदस्यॉ की 2/3 संख्या तथा सदन के कुल बहुमत द्वारा ही पास किया जायेगा दूसरा सदन भी इसे इसी प्रकार पारित करेगा किंतु इस विधेयक को सदनॉ के पृथक सम्मेलन मे पारित किया जायेगा गतिरोध आने की दशा मे जैसा कि सामान्य विधेयक की स्थिति मे होता है सदनॉ की संयुक्त बैठक नही बुलायी जायेगी 24 वे संविधान संशोधन 1971 के बाद से यह अनिवार्य कर दिया गया है कि राष्ट्रपति इस बिल को अपनी स्वीकृति दे ही दे
विधेयक पारित करने मे आया गतिरोध
जब संसद के दोनॉ सदनॉ के मध्य बिल को पास करने से संबंधित विवाद हो या जब एक सदन द्वारा पारित बिल को दूसरा अस्वीकृत कर दे या इस तरह के संशोधन कर दे जिसे मूल सदन अस्वीकर कर दे या इसे 6 मास तक रोके रखे तब सदनॉ के मध्य गतिवरोध की स्थिति जन्म लेती है अनु 108 के अनुसार राष्ट्रपति इस दशा मे दोनॉ सदनॉ की संयुक्त बैठक बुला लेगा जिसमे सामान्य बहुमत से फैसला हो जायेगा अब तक मात्र तीन अवसरॉ पे इस प्रकार की बैठक बुलायी गयी है1. दहेज निषेध एक्ट 19612.बैंकिग सेवा नियोजन संशोधन एक्ट 19783.पोटा एक्ट 2002संशोधन के विरूद्ध सुरक्षा उपाय 
1. न्यायिक पुनरीक्षा का पात्र है
2.संविधान के मूल ढांचे के विरूद्ध न हो
3. संसद की संशोधन शक्ति के भीतर आता हो
4. संविधान की सर्वोच्चता, विधि का शासन तीनॉ अंगो का संतुलन बना रहे
5. संघ के ढाँचे से जुडा होने पर आधे राज्यॉ की विधायिका से स्वीकृति मिले
6. गठबंधन राजनीति भी संविधान संशोधन के विरूद्ध प्रभावी सुरक्षा उपाय देती है क्योंकि एकदलीय पूर्ण बहुमत के दिन समाप्त हो चुके
अध्यादेश जारी करना
अनु 123 राष्ट्रपति को अध्यादेश जारी करने की शक्ति देता है यह तब जारी होगा जब राष्ट्रपति संतुष्ट हो जाये कि परिस्थितियाँ ऐसी हो कि तुरंत कार्यवाही करने की जरूरत है तथा संसद का 1 या दोनॉ सदन सत्र मे नही है तो वह अध्यादेश जारी कर सकता है यह अध्यादेश संसद के पुनसत्र के 6 सप्ताह के भीतर अपना प्रभाव खो देगा यधपि दोनो सदनॉ द्वारा स्वीकृति देने पर यह जारी रहेगा यह शक्ति भी न्यायालय द्वारा पुनरीक्षण की पात्र है किंतु शक्ति के गलत प्रयोग या दुर्भावना को सिद्ध करने का कार्य उस व्यक्ति पे होगा जो इसे चुनौती दे अध्यादेश जारी करने हेतु संसद का सत्रावसान करना भी उचित हो सकता है क्यॉकि अध्यादेश की जरूरत तुरंत हो सकती है जबकि संसद कोई भी अधिनियम पारित करने मे समय लेती है अध्यादेश को हम अस्थाई विधि मान सकते है यह राष्ट्रपति की विधायिका शक्ति के अन्दर आता है न कि कार्यपालिका वैसे ये कार्य भी वह मंत्रिपरिषद की सलाह से करता है यदि कभी संसद किसी अध्यादेश को अस्वीकार दे तो वह नष्ट भले ही हो जाये किंतु उसके अंतर्गत किये गये कार्य अवैधानिक नही हो जाते है राष्ट्रपति की अध्यादेश जारी करने की शक्ति पे नियंत्रण 1. प्रत्येक जारी किया हुआ अध्यादेश संसद के दोनो सदनो द्वारा उनके सत्र शुरु होने के 6 हफ्ते के भीतर स्वीकृत करवाना होगा इस प्रकार कोई अध्यादेश संसद की स्वीकृति के बिना 6 मास + 6 सप्ताह से अधिक नही चल सकता है2. लोकसभा एक अध्यादेश को अस्वीकृत करने वाला प्रस्ताव 6 सप्ताह की अवधि समाप्त होने से पूर्व पास कर सकती है3. राष्ट्रपति का अध्यादेश न्यायिक समीक्षा का विषय़ हो सकता है
संसद मे राष्ट्रपति का अभिभाषण
      यह सदैव मंत्रिपरिषद तैयार करती है यह सिवाय सरकारी नीतियॉ की घोषणा के कुछ नही होता है सत्र के अंत मे इस पर धन्यवाद प्रस्ताव पारित किया जाता है यदि लोकसभा मे यह प्रस्ताव पारित नही हो पाता है तो यह सरकार की नीतिगत पराजय मानी जाती है तथा सरकार को तुरंत अपना बहुमत सिद्ध करना पडता है संसद के प्रत्येक वर्ष के प्रथम सत्र मे तथा लोकसभा चुनाव के तुरंत पश्चात दोनॉ सदनॉ की सम्मिलित बैठक को राष्ट्रपति संबोधित करता है यह संबोधन वर्ष के प्रथम सत्र का परिचायक है इन सयुंक्त बैठकॉ का सभापति खुद राष्ट्रपति होता हैअभिभाषण मे सरकार की उपलब्धियॉ तथा नीतियॉ का वर्णन तथा समीक्षा होती है आतंरिक समस्याओं से जुडी नीतियाँ भी इसी मे घोषित होती है प्रस्तावित विधायिका कार्यवाहिया जो कि संसद के सामने उस वर्ष के सत्रॉ मे लानी हो का वर्णन भी अभिभाषण मे होता है अभिभाषण के बाद दोनो सद्न पृथक बैठक करके उस पर चर्चा करते है जिसे पर्यापत समय दिया जाता है
संचित निधि
– संविधान के अनु 266 के तहत स्थापित है यह ऐसी निधि है जिस मे समस्त एकत्र कर/राजस्व जमा,लिये गये ऋण जमा किये जाते है यह भारत की सर्वाधिक बडी निधि है जो कि संसद के अधीन रखी गयी है कोई भी धन इसमे बिना संसद की पूर्व स्वीकृति के निकाला/जमा या भारित नहीं किया जा सकता है अनु 266 प्रत्येक राज्य की समेकित निधि का वर्णन भी करता है
भारत की लोक निधि
--- अनु 266 इसका वर्णन भी करता है वह धन जिसे भारत सरकार कर एकत्रीकरण प्राप्त आय उगाहे गये ऋण के अलावा एकत्र करे भारत की लोकनिधि कहलाती है कर्मचारी भविष्य़ निधि को भारत की लोकनिधि मे जमा किया गया है यह कार्यपालिका के अधीन निधि है इससे व्यय धन महालेखानियंत्रक द्वारा जाँचा जाता है अनु 266 राज्यॉ की लोकनिधि का भी वर्णन करता है
भारत की आपातकाल निधि
--- अनु 267 संसद को निधि जो कि आपातकाल मे प्रयोग की जा सकती हो स्थापित करने का अधिकार देता है यह निधि राष्ट्रपति के अधीन है इससे खर्च धन राष्ट्रपति की स्वीकृति से होता है परंतु संसद के समक्ष इसकी स्वीकृति ली जाती है यदि संसद स्वीकृति दे देती है तो व्यय धन के बराबर धन भारत की संचित निधि से निकाल कर इसमे डाल दिया जाता है अनु 267 राज्यॉ को अपनी अपनी आपातकाल निधि स्थापित करने का अधिकार भी देता है
भारित व्यय
--- वे व्यय जो कि भारत की संचित निधि पर बिना संसदीय स्वीकृति के भारित होते है ये व्यय या तो संविधान द्वारा स्वीकृत होते है या संसद विधि बना कर डाल देती है कुछ संवैधानिक पदॉ की स्वतंत्रता बनाये रखने के लिये यह व्यय प्रयोग लाये गये है अनु 112[3] मे कुछ भारित व्ययॉ की सूची है
1. राष्ट्रपति के वेतन,भत्ते,कार्यालय से जुडा व्यय है
2. राज्यसभा लोकसभा के सभापतियॉ उपसभापतियॉ के वेतन भत्ते
3.ऋण भार जिनके लिये भारत सरकार उत्तरदायी है [ब्याज सहित]
4.सर्वोच्च न्यायालय के न्यायधीशों के वेतन भत्ते पेंशन तथा उच्च न्यायालय की पेंशने इस पर भारित है
5. महालेखानियंत्रक तथा परीक्षक [केग] के वेतन भत्ते
6. किसी न्यायिक अवार्ड/डिक्री/निर्णय के लिये आवशयक धन जो न्यायालय/ट्रिब्न्यूल द्वारा पारित हो
7. संसद द्वारा विधि बना कर किसी भी व्यय को भारित व्यय कहा जा सकता है अभी तक संसद ने निर्वाचन आयुक्तॉ के वेतन भत्ते पेंशन ,केन्द्रीय सर्तकता आयोग सदस्यॉ के वेतन भत्ते पेंशन भी इस पर भारित किये है
वित्त व्यवस्था पर संसद का नियंत्रण
अनु 265 के अनुसार कोई भी कर कार्यपालिका द्वारा बिना विधि के अधिकार के न तो आरोपित किया जायेगा और न ही वसूला जायेगा अनु 266 के अनुसार भारत की समेकित निधि से कोई धन व्यय /जमा भारित करने से पूर्व संसद की स्वीकृति जरूरी हैअनु 112 के अनुसार राष्ट्रपति भारत सरकार के वार्षिक वित्तीय लेखा को संसद के सामने रखेगा यह वित्तीय लेखा ही बजट है
सरकारिया आयोग ने अपनी रिपोर्ट मे इस तरह की सिफारिश दी थी
1. एक राज्य के राज्यपाल की नियुक्ति राज्य के मुख्यमंत्री की सलाह के बाद ही राष्ट्रपति करे
2. वह जीवन के किसी क्षेत्र का महत्वपूर्ण व्यक्तित्व हो
3. वह राज्य के बाहर का रहने वाला हो
4. वह राजनैतिक रूप से कम से कम पिछले 5 वर्शो से राष्ट्रीय रूप से सक्रिय ना रहा हो तथा नियुक्ति वाले राज्य मे कभी भी सक्रिय ना रहा हो
5. उसे सामान्यत अपने पाँच वर्ष का कार्यकाल पूरा करने दिया जाये ताकि वह निष्पक्ष रूप से काम कर सके
6. केन्द्र पर सत्तारूढ राजनैतिक गठबन्धन का सद्स्य ऐसे राज्य का राज्यपाल नही बनाया जाये जो विपक्ष द्वारा शासित हो
7. राज्यपाल द्वारा पाक्षिक रिपोर्ट भेजने की प्रथा जारी रहनी चाहिए8. यदि राज्यपाल राष्ट्रपति को अनु 356 के अधीन राष्ट्रपति शासन लगाने की अनुशंसा करे तो उसे उन कारणॉ ,स्थितियों का वर्णन रिकार्ड मे रखना चाहिए जिनके आधार पे वह इस निष्क़र्ष पे पहुँचा हो
इसके अलावा राज्यपाल एक संवैधानिक प्रमुख है जो अपने कर्तव्य मंत्रिपरिषद की सलाह सहायता से करता है परंतु उसकी संवैधानिक स्थिति उसकी मंत्रिपरिषद की तुलना मे बहुत सुरक्षित है वह राष्ट्रपति के समान असहाय नहीं है राष्ट्रपति के पास मात्र विवेकाधीन शक्ति ही है जिसके अलावा वह सदैव प्रभाव का ही प्रयोग करता है किंतु संविधान राजयपाल को प्रभाव तथा शक्ति दोनों देता है उसका पद उतना ही शोभात्मक है उतना ही कार्यातमक भी हैराज्यपाल उन सभी विवेकाधीन शक्तियों का प्रयोग भी करता है जो राष्ट्रपति को मिलती है इसके अलावा वो इन अतिरिक्त शक्तियों का प्रयोग भी करता हैअनु 166[2] के अंर्तगत यदि कोई प्रशन उठता है कि राज्यपाल की शक्ति विवेकाधीन है या नहीं तो उसी का निर्णय अंतिम माना जाता हैअनु 166[3] राज्यपाल इन शक्तियों का प्रयोग उन नियमों के निर्माण हेतु कर सकता है जिनसे राज्यकार्यों को सुगमता पूर्वक संचालन हो साथ ही वह मंत्रियों मे कार्य विभाजन भी कर सकता हैअनु 200 के अधीन राज्यपाल अपनी विवेक शक्ति का प्रयोग राज्य विधायिका द्वारा पारित बिल को राष्ट्रपति की स्वीकृति हेतु सुरक्षित रख सकने मे कर सकता हैअनु 356 के अधीन राज्यपाल राष्ट्रपति को राज के प्रशासन को अधिग्रहित करने हेतु निमंत्रण दे सकता है यदि यह संविधान के प्रावधानों के अनुरूप नहीं चल सकता होविशेष विवेकाधीन शक्तिपंरपरा के अनुसार राज्यपाल राष्ट्रपति को भेजी जाने वाली पाक्षिक रिपोर्ट के सम्बन्ध मे निर्णय ले सकता है कुछ राज्यों के राज्यपालों को विशेष उत्तरदायित्वों का निर्वाह करना होता है विशेष उत्तरदायित्व का अर्थ है कि राज्यपाल मंत्रिपरिषद से सलाह तो ले किंतु इसे मानने हेतु वह बाध्य ना हो और ना ही उसे सलाह लेने की जरूरत पडती हो
राज्य विधायिका
संविधान मे 6 राज्यों हेतु द्विसदनीय विधायिका का प्रावधान किया गया हैउपरी सदन स्थापना तथा उन्मूलन अनु 169 के अनुसार यह शक्ति केवल संसद को हैऊपरी सदन का महत्व –यह सदन प्रथम श्रेणी का नही होता यह विधान सभा द्वारा पारित बिल को अस्वीकृत संशोधित नहीं कर सकता है केवल किसी बिल को ज्यादा से ज्यादा 4 मास के लिये रोक सकता है इसके अलावा मंत्रिपरिषद मे विशेषज्ञों की नियुक्ति हेतु इसका प्रयोग हो सकता है क्योंकि यहाँ मनोनीत सदस्यों की सुविधा भी हैविधायिका की प्रक्रियाएँ तीन प्रकार के बिल धन ,फाइनेंस तथा सामान्य होते है ,धन बिल संसद की तरह ही पास होते है ,फाइनेंस बिल केवल निचले सदन मे ही पेश होते है , सामान्य बिल जो ऊपरी सदन मे पेश होंगे व पारित हो यदि बाद मे निचले सदन मे अस्वीकृत हो जाये तो समाप्त हो जाते हैनिचले सदन द्वारा पारित बिल को ऊपरी सदन केवल 3 मास के लिये रोक सकता है उसके बाद वे पारित माने जाते है
राज्य न्यायपालिका
      राज्य न्यायपालिका मे तीन प्रकार की पीठें होती है एकल जिसके निर्णय को उच्च न्यायालय की डिवीजनल/खंडपीठ/सर्वोच्च न्यायालय मे चुनौती दी जा सकती हैडिवीजन बेंच 2 या 3 जजों के मेल से बनी होती है जिसके निर्णय केवल सुप्रीम कोर्ट मे चुनौती पा सकते हैसंवैधानिक/फुल बेंच सभी संवैधानिक व्याख्या से संबधित वाद इस प्रकार की पीठ सुनती है इसमे कम से कम 5 जज होते है
अधीनस्थ न्यायालय
       इस स्तर पर सिविल आपराधिक मामलों की सुनवाई अलग अलग होती है इस स्तर पर सिविल तथा सेशन कोर्ट अलग अलग होते है इस स्तर के जज सामान्य भर्ती परीक्षा के आधार पर भर्ती होते है उनकी नियुक्ति राज्यपाल राज्य मुख्य न्यायाधीश की सलाह पर करता हैफास्ट ट्रेक कोर्ट – ये अतिरिक्त सत्र न्यायालय है इनक गठन दीर्घावधि से लंबित अपराध तथा अंडर ट्रायल वादों के तीव्रता से निपटारे हेतु किया गया हैये अतिरिक्त सत्र न्यायालय है इनक गठन दीर्घावधि से लंबित अपराध तथा अंडर ट्रायल वादों के तीव्रता से निपटारे हेतु किया गया हैइसके पीछे कारण यह था कि वाद लम्बा चलने से न्याय की क्षति होती है तथा न्याय की निरोधक शक्ति कम पड जाती है जेल मे भीड बढ जाती है 10 वे वित्त आयोग की सलाह पर केद्र सरकार ने राज्य सरकारों को 1 अप्रेल 2001 से 1734 फास्ट ट्रेक कोर्ट गठित करने का आदेश दिया अतिरिक्त सेशन जज याँ उंचे पद से सेवानिवृत जज इस प्रकार के कोर्टो मे जज होता है इस प्रकार के कोर्टो मे वाद लंबित करना संभव नहीं होता हैहर वाद को निर्धारित स्मय मे निपटाना होता है
आलोचना
 1. निर्धारित संख्या मे गठन नहीं हुआ
2. वादों का निर्णय संक्षिप्त ढँग से होता है जिसमें अभियुक्त को रक्षा करने का पूरा मौका नहीं मिलता है
3. न्यायधीशों हेतु कोई सेवा नियम नहीं है
लोक अदालत -- जनता की अदालतें है ये नियमित कोर्ट से अलग होती है पदेन या सेवानिवृत जज तथा दो सदस्य एक सामाजिक कार्यकता ,एक वकील इसके सद्स्य होते है सुनवाई केवल तभी करती है जब दोनों पक्ष इसकी स्वीकृति देते हो ये बीमा दावों क्षतिपूर्ति के रूप वाले वादों को निपता देती हैइनके पास वैधानिक दर्जा होता है वकील पक्ष नहीं प्रस्तुत करते हैं इनके लाभ – 
1.न्यायालय शुल्क नहीं लगते
2. यहाँ प्रक्रिया संहिता/साक्ष्य एक्ट नहीं लागू होते
3. दोनों पक्ष न्यायधीश से सीधे बात कर समझौते पर पहुचँ जाते है
4. इनके निर्णय के खिलाफ अपील नहीं ला सकते है
आलोचनाएँ 
1. ये नियमित अंतराल से काम नहीं करती है
2. जब कभी काम पे आती है तो बिना सुनवाई के बडी मात्रा मे मामले निपटा देती है
3. जनता लोक अदालतों की उपस्थिति तथा लाभों के प्रति जागरूक नहीं है
जम्मू कश्मीर की विशेष स्थिति
संवैधानिक प्रावधान स्वतः जम्मू तथा कश्मीर पे लागू नहीं होते केवल वहीं प्रावधान जिनमे स्पष्ट रूप से कहा जाए कि वे जम्मू कश्मीर पे लागू होते है उस पर लागू होते हैजम्मू कश्मीर की विशेष स्थिति का ज्ञान इन तथ्यों से होता है
1. जम्मू कश्मीर संविधान सभा द्वारा निर्मित राज्य संविधान से वहाँ का कार्य चलता है ये संविधान जम्मू कश्मीर के लोगों को राज्य की नागरिकता भी देता है केवल इस राज्य के नागरिक ही संपत्ति खरीद सकते है या चुनाव लड सकते है या सरकारी सेवा ले सकते है
2. संसद जम्मू कश्मीर से संबंध रखने वाला ऐसा कोई कानून नहीं बना सकती है जो इसकी राज्य सूची का विषय हो
3. अवशेष शक्ति जम्मू कश्मीर विधान सभा के पास होती है
4. इस राज्य पर सशस्त्र विद्रोह की दशा मे या वित्तीय संकट की दशा मे आपात काल लागू नहीं होता है
5. संसद राज्य का नाम क्षेत्र सीमा बिना राज्य विधायिका की स्वीकृति के नहीं बदलेगीं
6. राज्यपाल की नियुक्ति राष्ट्रपति राज्य मुख्यमंत्री की सलाह के बाद करेगी
7. संसद द्वारा पारित निवारक निरोध नियम राज्य पर अपने आप लागू नहीं होगा8. राज्य की पृथक दंड संहिता तथा दंड प्रक्रिया संहिता है९।
केन्द्र राज्य संबंध
विधायिका स्तर पर सम्बन्ध
संविधान की सातंवी अनुसूची विधायिका के विषय़ केन्द्र राज्य के मध्य विभाजित करती है संघ सूची मे महत्वपूर्ण तथा सर्वाधिक विषय़ हैराज्यों पर केन्द्र का विधान संबंधी नियंत्रण
1. अनु 31[1] के अनुसार राज्य विधायिका को अधिकार देता है कि वे निजी संपत्ति जनहित हेतु विधि बना कर ग्रहित कर ले परंतु ऐसी कोई विधि असंवैधानिक/रद्द नहीं की जायेगी यदि यह अनु 14 व अनु 19 का उल्लघंन करे परंतु यह न्यायिक पुनरीक्षण का पात्र होगा किंतु यदि इस विधि को राष्ट्रपति की स्वीकृति हेतु रखा गया और उस से स्वीकृति मिली भी हो तो वह न्यायिक पुनरीक्षा का पात्र नहीं होगा
2. अनु 31[ब] के द्वारा नौवीं अनुसूची भी जोडी गयी है तथा उन सभी अधिनियमों को जो राज्य विधायिका द्वारा पारित हो तथा अनुसूची के अधीन रखें गये हो को भी न्यायिक पुनरीक्षा से छूट मिल जाती है लेकिन यह कार्य संसद की स्वीकृति से होता है
3. अनु 200 राज्य का राज्यपाल धन बिल सहित बिल जिसे राज्य विधायिका ने पास किया हो को राष्ट्रपति की सहमति के लिये आरक्षित कर सकता है
4. अनु 288[2] राज्य विधायिका को करारोपण की शक्ति उन केन्द्रीय अधिकरणों पर नहीं देता जो कि जल संग्रह, विधुत उत्पादन, तथा विधुत उपभोग ,वितरण ,उपभोग, से संबंधित हो ऐसा बिल पहले राष्ट्रपति की स्वीकृति पायेगा
5. अनु 305[ब] के अनुसार राज्य विधायिकाको शक्ति देता है कि वो अंतराज्य व्यापार वाणिज़्य पर युक्ति निर्बधंन लगाये परंतु राज्य विधायिका मे लाया गया बिल केवल राष्ट्रप्ति की अनुशंसा से ही लाया जा सकता है
केन्द्र राज्य प्रशासनिक संबंध
अनु 256 के अनुसार राज्य की कार्यपालिका शक्तियाँ इस तरह प्रयोग लायी जाये कि संसद द्वारा पारित विधियों का पालन हो सके । इस तरह संसद की विधि के अधीन विधिंयों का पालन हो सके । इस तरह संसद की विधि के अधीन राज्य कार्यपालिका शक्ति आ गयी है । केन्द्र राज्य को ऐसे निर्देश दे सकता है जो इस संबंध मे आवश्यक हो
अनु 257 ----- कुछ मामलों मे राज्य पर केन्द्र नियंत्रण की बात करता है । राज्य कार्यपालिका शक्ति इस तरह प्रयोग ली जाये कि वह संघ कार्यपालिका से संघर्ष ना करे केन्द्र अनेक क्षेत्रों मे राज्य को उसकी कार्यपालिका शक्ति कैसे प्रयोग करे इस पर निर्देश दे सकता है यदि राज्य निर्देश पालन मे असफल रहा तो राज्य मे राष्ट्रपति शासन तक लाया जा सकता हैअनु 258[2] के अनुसार --- संसद को राज्य प्रशासनिक तंत्र को उस तरह प्रयोग लेने की शक्ति देता है जिनसे संघीय विधि पालित हो केन्द्र को अधिकार है कि वह राज्य मे बिना उसकी मर्जी के सेना, केन्द्रीय सुरक्षा बल तैनात कर सकता है
अखिल भारतीय सेवाएँ भी केन्द्र को राज्य प्रशासन पे नियंत्रण प्राप्त करने मे सहायता देती है अनु 262 संसद को अधिकार देता है कि वह अंतराज्य जल विवाद को सुलझाने हेतु विधि का निर्माण करे संसद ने अंतराज्य जल विवाद तथा बोर्ड एक्ट पारित किये थेअनु 263 राष्ट्राप्ति को शक्ति देता है कि वह अंतराज्य परिषद स्थापित करे ताकि राज्यों के मध्य उत्पन्न मत विभिन्ंता सुलझा सके
निर्वाचन आयोग की कार्यप्रणाली/कार्य
1 निर्वाचन आयोग के पास यह उत्तरदायित्व है कि वह निर्वाचनॉ का पर्यवेक्षण ,निर्देशन तथा आयोजन करवाये वह राष्ट्रपति उपराष्ट्रपति ,संसद,राज्यविधानसभा के चुनाव करता है
2 निर्वाचक नामावली तैयार करवाता है
3 राजनैतिक दलॉ का पंजीकरण करता है
4. राजनैतिक दलॉ का राष्ट्रीय ,राज्य स्तर के दलॉ के रूप मे वर्गीकरण ,मान्यता देना, दलॉ-निर्दलीयॉ को चुनाव चिन्ह देना
5. सांसद/विधायक की अयोग्यता[दल बदल को छोडकर पर राष्ट्रपति/राज्यपाल को सलाह देना
6. गलत निर्वाचन उपायॉ का उपयोग करने वाले व्यक्तियॉ को निर्वाचन के लिये अयोग्य घोषित करनानिर्वाचन आयोग की शक्तियाँ अनु 324[1] निर्वाचन आयोग को निम्न शक्तियाँ देता है
1. सभी निर्वाचनॉ का पर्यवेक्षण ,नियंत्रण,आयोजन करवाना2.सुप्रीम कोर्ट के निर्णयानुसार अनु 324[1] मे निर्वाचन आयोग की शक्तियाँ कार्यपालिका द्वारा नियंत्रित नहीं हो सकती उसकी शक्तियां केवल उन निर्वाचन संबंधी संवैधानिक उपायों तथा संसद निर्मित निर्वाचन विधि से नियंत्रित होती है निर्वाचन का पर्यवेक्षण ,निर्देशन ,नियंत्रण तथा आयोजन करवाने की शक्ति मे देश मे मुक्त तथा निष्पक्ष चुनाव आयोजित करवाना भी निहित है जहां कही संसद विधि निर्वाचन के संबंध मे मौन है वहां निष्पक्ष चुनाव करवाने के लिये निर्वाचन आयोग असीमित शक्ति रखता है यधपि प्राकृतिक न्याय, विधि का शासन तथा उसके द्वारा शक्ति का सदुपयोग होना चाहिएनिर्वाचन आयोग विधायिका निर्मित विधि का उल्लघँन नहीं कर सकता है और न ही ये स्वेच्छापूर्ण कार्य कर सकता है उसके निर्णय न्यायिक पुनरीक्षण के पात्र होते हैनिर्वाचन आयोग की शक्तियाँ निर्वाचन विधियों की पूरक है न कि उन पर प्रभावी तथा वैध प्रक्रिया से बनी विधि के विरूद्ध प्रयोग नही की जा सकती हैयह आयोग चुनाव का कार्यक्रम निर्धारित कर सकता है चुनाव चिन्ह आवंटित करने तथा निष्पक्ष चुनाव करवाने के निर्देश देने की शक्ति रखता हैसुप्रीम कोर्ट ने भी उसकी शक्तियों की व्याख्या करते हुए कहा कि वह एकमात्र अधिकरण है जो चुनाव कार्यक्रम निर्धारित करे चुनाव करवाना केवल उसी का कार्य है
जनप्रतिनिधित्व एक्ट 1951 के अनु 14,15 भी राष्ट्रपति,राज्यपाल को निर्वाचन अधिसूचना जारी करने का अधिकार निर्वाचन आयोग की सलाह के अनुरूप ही जारी करने का अधिकार देते है
भारत मे निर्वाचन सुधार
जन प्रतिनिधित्व अधिनियम संशोधन 1988 से इस प्रकार के संशोधन किये गये हैं.
1. इलैक्ट्रानिक मतदान मशीन का प्रयोग किया जा सकेगा. वर्ष 2004 के लोकसभा चुनाव मे इनका सर्वत्र प्रयोग हुआ
2. राजनैतिक दलों का निर्वाचन आयोग के पास अनिवार्य पंजीकरण करवाना होगा यदि वह चुनाव लडना चाहे तो कोई दल तभी पंजीकृत होगा जब वह संविधान के मौलिक सिद्धांतों के पालन करे तथा उनका समावेश अपने दलीय संविधान मे करे
3. मतदान केन्द्र पर कब्जा, जाली मत
त्रुटियां
परस्पर वीरोधी, मिलकत या संपदा का अधिकार मूल अधिकार रहा । कई साल तक शिक्षा का मूल अधिकार न होकर नीति के निदेशक के कारण भ्रष्टाचार में वृद्धि होती रही ओर गरीब, गरीब होते रहें ।
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फेडरेशन तथा कनफेडरेशन का भेद
फेडरेशन
दो या अधिक संघटको का औपचारिक संगठन
सम्प्रभु तथा स्वतंत्र परंतु उसके संघटक सम्प्रभु तथा स्वतंत्र नही होते
संघटक संघ से स्वतंत्र होने की शक्ति नही रखते है
संघ तथा उसके निवासियो के मध्य वैधानिक सम्बन्ध होता है नागरिकता नागरिको के अधिकार तथा कर्तव्य होते है
कनफेडरेशन
दो या अधिक संघटको का ढीला संघठन 
संघटक सम्प्रभु तथा स्वतंत्र होते है परंतु खुद कनफेडरेशन मे ये गुण नही होते है
संघटक स्वतंत्र होने की शक्ति रखते है
निवासी परिसंघ के नागरिक नही होते बल्कि उसके संघट्को के नागरिक होते है
शक्ति पृथक्करण का सिद्धांत
यह सिद्धांत फ्रेंच दार्शनिक मान्टेस्कयू ने दिया था उसके अनुसार राज्य की शक्ति उसके तीन भागो कार्य , विधान, तथा न्यायपालिकाओ मे बांट देनी चाहियेये सिद्धांत राज्य को सर्वाधिकारवादी होने से बचा सकता है तथा व्यक्ति की स्वतंत्रता की रक्षा करता हैअमेरिकी सविन्धान पहला ऐसा सविन्धान था जिस मे ये सिद्धांत अपनाया गया थाशक्ति पृथक्करण का सिद्धांत भारतीय सविन्धान मे------ सविन्धान मे इसका साफ वर्णन ना होकर सकेत मात्र है इस हेतु सविन्धान मे तीनो अंगो का पृथक वर्णन है संसदीय लोकतंत्र होने के कारण भारत मे कार्यपालिका तथा विधायिका मे पूरा अलगाव नही हो सका है कार्यपालिका[मंत्रीपरिषद] विधायिका मे से ही चुनी जाती है तथा उसके निचले सदन के प्रति ही उत्तरदायी होती हैअनु 51 के अनुसार कार्यपालिका तथा न्यायपालिका को पृथक होना चाहिए इस लिये ही 1973 मे दंड प्रक्रिया सन्हिता पारित की गयी जिस के द्वारा जिला मजिस्टृटो की न्यायिक शक्ति लेकर न्यायिक मजिस्टृटो को दे दी गयी थी
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