Tuesday 18 March 2014

50% DA MERGER

In the year 2004, 50% of dearness allowance was merged with basic pay for Central Government Employees and Pensioners with effect from 1.4.2004. This was implemented as per the recommendation of 5th Central Pay Commission and the Union Government had decided to merge 50% of dearness allowance with baisc pay and issued orders on 1.3.2004. The DA was 61% at that time. (61% – 50% = 11%) 50% of dearness allowance was merged with basic pay and the remaining 11% was issued as normal dearness allowance with effect from 1.1.2004.
Example : An employee’s Basic Pay had revised as under on 1.1.2004 after 50 % DA merged with basic pay…
Basic PayDearness allowance 61%TotalBasic PayDearness PayRemaining percentage of Dearness allowance 11%TotalDifference
400024406440400020006606660220
[And the next instalment of additional dearness allowance from 1.7.2004 declared as 3%, then the total dearness allowance went up to 14%. When implementation of 6th CPC, the above employee's basic pay was 4200 as on 1.1.2006, it just multiply with 1.86 and add with corresponding grade pay.]
Everybody thinks that merger of 50% DA is more beneficial…. But it is not like that…….!
It is essential to CG Employees, of course for others also, a regular increase in the basic pay is needed………!
For Example, an employee’s basic pay Rs.10000 as on 1.1.2011, after merging of 50% dearness allowance the calculation is clearly shows the difference only 50 rupees per month…
Basic PayDearness allowance 51%TotalBasic PayDearness PayRemaining percentage of DA 1%TotalDifference
10,00051001510010000500015015150150
“Note that the 50% of Dearness allowance will not be merged with basic pay, instead, the amount will be shown as ‘Dearness Pay’. This amount will be payable only upto the date of implementation of 7th pay Commission.
This is only as a advance hike for all employees before the implementation of 7th CPC.
When fixation of pay on the recommendations of 7th CPC on 1.1.2016 according to the revised pay rules, the amount of ‘basic pay’ will be taken without dearness pay.
For example, approximately basic pay of the above employee will be 12,250 as on 1.1.2016 . This amount only will be taken as Basic Pay for the calculation of pay fixation against the amount of 18,375.
The enhanced amount will be given for us as ‘Interim Relief’ for the period between announcement and implementation…It is not at all merged with ‘Basic Pay’..!
We can hear, what about hike in HRA and other entitlements…
The rate of HRA is provided according to the cities, like 10, 20 and 30%. Not all the employees are getting 30%. And one more important points is the percentage hike in HRA will not applicable to those who are living in Government Quarters. In major metropolitan cities, thousands of employees are residing with Government Accommodation. They will pay more as HRA to Government and they don’t bother about increasing in HRA.
Transport Allowance is providing according to their GP and classified cites, the amount is vary from 400 to 3200 plus DA thereon. The DA amount may decrease when 50% of DA merged with basic pay.
So, ultimately hike in Basic pay only the factor is more beneficial in DA Merger.
But in 6th CPC there was no recommendation to convert dearness allowance as dearness pay each time the CPI increase by 50% over the base index recommended in pay commission report.
All Central Government employees federations are showing maximum effort to achieve the demand of “Merger of 50% Dearness Allowance with Basic Pay” at this time.
Federations sources said, there will be chance to announce before March…!
Central government employees are awaiting next government nod on merger of 50 percent dearness allowance to basic Pay in the view of model code of conduct.
Family finances of government employees are being squeezed from all sides as inflation is rising at its fastest level in last four years. How can government employees cope with raising inflation besides merger of 50 percent dearness allowance (DA) to basic pay.
High prices of day-to-day goods make it difficult for government employees to afford even the basic commodities in their lives.
The Sixth Pay Commission did not talk about merger. As a result, with the continuous increase of dearness allowance, this has now reached up to 100 per cent of basic pay but the government did not merged 50 percent dearness allowance to basic pay on the pretext of sixth pay panel recommendation.
Earlier, the DA was merged with basic pay, only after it touched 50 per cent of the basic pay on the recommendation of fifth central pay panel.
The government has set up the Seventh Central Pay Commission to recommend for revising salaries of central government employees.
The 4-members commission, headed by Ashok Kumar Mathur, former Supreme Court Judge, will formulate pay, allowances and other facilities as well as benefits structure for 50 lakh central government employees.
The commission will also to look at the revision of pension for those who have retired prior to the date of effect of these recommendations.
However, the decision regarding merger of 50 per cent dearness allowance to basic pay will be taken only after the Seventh Pay Commission gives its interim recommendations under the terms of reference for the commission before submitting of its final report within 18 months of the date of its constitution.
The merger of 50 percent DA to basic pay will lead salaries rising by up to 30 per cent, which will cope with the present living cost of government employees.
The election Commission announced the Lok Sabha elections; model code of conduct makes the government lame-duck as it cannot take decision on merger of dearness allowance without permission of the Election Commission.
Hence, this genuine demand may be considered by the next government only on interim recommendation of seventh pay panel.
Source : http://tkbsen.in/2014/03/central-employees-awaiting-next-govt-nod-on-da-merger/

Friday 31 January 2014

प्रेमचंद

प्रेमचंद (३१ जुलाई, १८८० - ८ अक्तूबर १९३६) के उपनाम से लिखने वाले धनपत राय श्रीवास्तवहिन्दी और उर्दू के महानतम भारतीय लेखकों में से एक हैं। उन्हें मुंशी प्रेमचंद व नवाब राय नाम से भी जाना जाता है और उपन्यास सम्राट के नाम से 
सम्मानित किया जाता है। इस नाम से उन्हें सर्वप्रथम बंगाल के विख्यात उपन्यासकार शरतचंद्र चट्टोपाध्याय ने संबोधित किया था। प्रेमचंद ने हिन्दी कहानी और उपन्यास की एक ऐसी परंपरा का विकास किया जिस पर पूरी शती का साहित्य आगे चल सका। इसने आने वाली एक पूरी पीढ़ी को गहराई तक प्रभावित किया और साहित्य की यथार्थवादी परंपरा की नीव रखी। उनका लेखन हिन्दी साहित्य एक ऐसी विरासत है जिसके बिना हिन्दी का विकास संभव ही नहीं था। वे एक सफल लेखक, देशभक्त नागरिक, कुशल वक्ता, ज़िम्मेदार संपादक और संवेदनशील रचनाकार थे। बीसवीं शती के पूर्वार्द्ध में जब हिन्दी में काम करने की तकनीकी सुविधाएँ नहीं थीं इतना काम करने वाला लेखक उनके सिवा कोई दूसरा नहीं हुआ। प्रेमचंद के बाद जिन लोगों ने साहित्‍य को सामाजिक सरोकारों और प्रगतिशील मूल्‍यों के साथ आगे बढ़ाने का काम किया, उनके साथ प्रेमचंद की दी हुई विरासत और परंपरा ही काम कर रही थी। बाद की तमाम पीढ़ियों, जिसमें यशपाल से लेकर मुक्तिबोध तक शामिल हैं, को प्रेमचंद के रचना-कर्म ने दिशा प्रदान की।

      प्रेमचंद का जन्म ३१ जुलाई १८८० को वाराणसी के निकट लमही गाँव में हुआ था। उनकी माता का नाम आनन्दी देवी था तथा पिता मुंशी अजायबराय लमही में डाकमुंशी थे। उनकी शिक्षा का आरंभ उर्दू, फारसी से हुआ और जीवन यापन का अध्यापन से। १८९८ में मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद वे एक स्थानीय विद्यालय में शिक्षक नियुक्त हो गए। नौकरी के साथ ही उन्होंने पढ़ाई जारी रखी १९१० में इंटर पास किया और १९१९ में बी.ए. पास करने के बाद स्कूलों के डिप्टी सब-इंस्पेक्टर पद पर नियुक्त हुए। सात वर्ष की अवस्था में उनकी माता तथा चौदह वर्ष की अवस्था में पिता का देहान्त हो जाने के कारण उनका प्रारंभिक जीवन संघर्षमय रहा। उनका पहला विवाह उन दिनों की परंपरा के अनुसार पंद्रह साल की उम्र में हुआ जो सफल नहीं रहा। वे आर्य समाज से प्रभावित रहे[७], जो उस समय का बहुत बड़ा धार्मिक और सामाजिक आंदोलन था। उन्होंने विधवा-विवाह का समर्थन किया और १९०६ में दूसरा विवाह अपनी प्रगतिशील परंपरा के अनुरूप बाल-विधवा शिवरानी देवी से किया। उनकी तीन संताने हुईं- श्रीपत राय, अमृतराय और कमला देवी श्रीवास्तव। १९१० में उनकी रचना सोजे-वतन (राष्ट्र का विलाप) के लिए हमीरपुर के जिला कलेक्टर ने तलब किया और उन पर जनता को भड़काने का आरोप लगाया। सोजे-वतन की सभी प्रतियां जब्त कर नष्ट कर दी गई। कलेक्टर ने नवाबराय को हिदायत दी कि अब वे कुछ भी नहीं लिखेंगे, यदि लिखा तो जेल भेज दिया जाएगा। इस समय तक प्रेमचंद ,धनपत राय नाम से लिखते थे। उर्दू में प्रकाशित होने वाली ज़माना पत्रिका के सम्पादक मुंशी दयानारायण निगम ने उन्हें प्रेमचंद नाम से लिखने की सलाह दी। इसके बाद वे प्रेमचन्द के नाम से लिखने लगे। जीवन के अंतिम दिनों में वे गंभीर रुप से बीमार पड़े। उनका उपन्यास मंगलसूत्र पूरा नहीं हो सका और लंबी बीमारी के बाद ८ अक्टूबर १९३६ को उनका निधन हो गया।
कार्यक्षेत्र
प्रेमचंद आधुनिक हिन्दी कहानी के पितामह माने जाते हैं। यों तो उनके साहित्यिक जीवन का आरंभ १९०१ से हो चुका था[९] पर उनकी पहली हिन्दी कहानी सरस्वती पत्रिका के दिसंबर अंक में १९१५ में सौत नाम से प्रकाशित हुई और १९३६ में अंतिम कहानी कफन नाम से। बीस वर्षों की इस अवधि में उनकी कहानियों के अनेक रंग देखने को मिलते हैं। उनसे पहले हिंदी में काल्पनिक, एय्यारी और पौराणिक धार्मिक रचनाएं ही की जाती थी। प्रेमचंद ने हिंदी में यथार्थवाद की शुरूआत की। " भारतीय साहित्य का बहुत सा विमर्श जो बाद में प्रमुखता से उभरा चाहे वह दलित साहित्य हो या नारी साहित्य उसकी जड़ें कहीं गहरे प्रेमचंद के साहित्य में दिखाई देती हैं।" अपूर्ण उपन्यास असरारे मआबिद के बाद देशभक्ति से परिपूर्ण कथाओं का संग्रह सोज़े-वतन उनकी दूसरी कृति थी, जो १९०८ में प्रकाशित हुई। इसपर अँग्रेज़ी सरकार की रोक और चेतावनी के कारण उन्हें नाम बदलकर लिखना पड़ा। प्रेमचंद नाम से उनकी पहली कहानी बड़े घर की बेटी ज़माना पत्रिका के दिसंबर १९१० के अंक में प्रकाशित हुई। मरणोपरांत उनकी कहानियाँ मानसरोवर के कई खंडों में प्रकाशित हुई। उपन्यास सम्राट प्रेमचन्द का कहना था कि साहित्यकार देशभक्ति और राजनीति के पीछे चलने वाली सच्चाई नहीं बल्कि उसके आगे मशाल दिखाती हुई चलने वाली सच्चाई है। यह बात उनके साहित्य में उजागर हुई है। १९२१ में उन्होंने महात्मा गांधी के आह्वान पर अपनी नौकरी छोड़ दी। कुछ महीने मर्यादा पत्रिका का संपादन भार संभाला, छे साल तक माधुरी नामक पत्रिका का संपादन किया, १९३० में बनारस से अपना मासिक पत्र हंस शुरू किया और १९३२ के आरंभ में जागरण नामक एक साप्ताहिक और निकाला। उन्होंने लखनऊ में १९३६ में अखिल भारतीय प्रगतिशील लेखक संघ के सम्मेलन की अध्यक्षता की। उन्होंने मोहन दयाराम भवनानी की अजंता सिनेटोन कंपनी में कहानी-लेखक की नौकरी भी की। १९३४ में प्रदर्शित मजदूर[१६] नामक फिल्म की कथा लिखी और कंट्रेक्ट की साल भर की अवधि पूरी किये बिना ही दो महीने का वेतन छोड़कर बनारस भाग आये क्योंकि बंबई (आधुनिक मुंबई) का और उससे भी ज़्यादा वहाँ की फिल्मी दुनिया का हवा-पानी उन्हें रास नहीं आया। प्रेमचंद ने करीब तीन सौ कहानियाँ, कई उपन्यास और कई लेख लिखे। उन्होंने कुछ नाटक भी लिखे और कुछ अनुवाद कार्य भी किया। प्रेमचंद के कई साहित्यिक कृतियों का अंग्रेज़ी, रूसी, जर्मन सहित अनेक भाषाओं में अनुवाद हुआ। गोदान उनकी कालजयी रचना है. कफन उनकी अंतिम कहानी मानी जाती है। तैंतीस वर्षों के रचनात्मक जीवन में वे साहित्य की ऐसी विरासत सौप गए जो गुणों की दृष्टि से अमूल्य है और आकार की दृष्टि से असीमित।
कृतियाँ

प्रेमचन्द की रचना-दृष्टि, विभिन्न साहित्य रूपों में, अभिव्यक्त हुई। वह बहुमुखी प्रतिभा संपन्न साहित्यकार थे। उन्होंने उपन्यास, कहानी, नाटक, समीक्षा, लेख, सम्पादकीय, संस्मरण आदि अनेक विधाओं में साहित्य की सृष्टि की किन्तु प्रमुख रूप से वह कथाकार हैं। उन्हें अपने जीवन काल में ही ‘उपन्यास सम्राट’ की पदवी मिल गयी थी। उन्होंने कुल १५ उपन्यास, ३०० से कुछ अधिक कहानियाँ, ३ नाटक, १० अनुवाद, ७ बाल-पुस्तकें तथा हजारों पृष्ठों के लेख, सम्पादकीय, भाषण, भूमिका, पत्र आदि की रचना की लेकिन जो यश और प्रतिष्ठा उन्हें उपन्यास और कहानियों से प्राप्त हुई, वह अन्य विधाओं से प्राप्त न हो सकी। यह स्थिति हिन्दी और उर्दू भाषा दोनों में समान रूप से दिखायी देती है। उन्होंने ‘रंगभूमि’ तक के सभी उपन्यास पहले उर्दू भाषा में लिखे थे और कायाकल्प से लेकर अपूर्ण उपन्यास ‘मंगलसूत्र’ तक सभी उपन्यास मूलतः हिन्दी में लिखे। प्रेमचन्द कथा-साहित्य में उनके उपन्याकार का आरम्भ पहले होता है। उनका पहला उर्दू उपन्यास (अपूर्ण) ‘असरारे मआबिद उर्फ़ देवस्थान रहस्य’ उर्दू साप्ताहिक ‘'आवाज-ए-खल्क़'’ में ८ अक्तूबर, १९०३ से १ फरवरी, १९०५ तक धारावाहिक रूप में प्रकाशित हुआ। उनकी पहली उर्दू कहानी दुनिया का सबसे अनमोल रतन कानपुर से प्रकाशित होने वाली ज़माना नामक पत्रिका में १९०८ में छपी। उनके कुल १५ उपन्यास है, जिनमें २ अपूर्ण है। बाद में इन्हें अनूदित या रूपान्तरित किया गया। प्रेमचन्द की मृत्यु के बाद भी उनकी कहानियों के कई सम्पादित संस्करण निकले जिनमें कफन और शेष रचनाएँ १९३७ में तथा नारी जीवन की कहानियाँ १९३८ में बनारस से प्रकाशित हुए। इसके बाद प्रेमचंद की ऐतिहासिक कहानियाँ तथा प्रेमचंद की प्रेम संबंधी कहानियाँ भी काफी लोकप्रिय साबित हुईं। नीचे उनकी कृतियों की विस्तृत सूची है।
समालोचना

मुख्य लेख : प्रेमचंद के साहित्य की विशेषताएँ

प्रेमचन्द उर्दू का संस्कार लेकर हिन्दी में आए थे और हिन्दी के महान लेखक बने। हिन्दी को अपना खास मुहावरा ऑर खुलापन दिया। कहानी और उपन्यास दोनो में युगान्तरकारी परिवर्तन पैदा किए। उन्होने साहित्य में सामयिकता प्रबल आग्रह स्थापित किया। आम आदमी को उन्होंने अपनी रचनाओं का विषय बनाया और उसकी समस्याओं पर खुलकर कलम चलाते हुए उन्हें साहित्य के नायकों के पद पर आसीन किया। प्रेमचंद से पहले हिंदी साहित्य राजा-रानी के किस्सों, रहस्य-रोमांच में उलझा हुआ था। प्रेमचंद ने साहित्य को सच्चाई के धरातल पर उतारा। उन्होंने जीवन और कालखंड की सच्चाई को पन्ने पर उतारा। वे सांप्रदायिकता, भ्रष्टाचार, जमींदारी, कर्जखोरी, गरीबी, उपनिवेशवाद पर आजीवन लिखते रहे। प्रेमचन्द की ज्यादातर रचनाएं उनकी ही गरीबी और दैन्यता की कहानी कहती है। ये भी गलत नहीं है कि वे आम भारतीय के रचनाकार थे। उनकी रचनाओं में वे नायक हुए, जिसे भारतीय समाज अछूत और घृणित समझा था. उन्होंने सरल, सहज और आम बोल-चाल की भाषा का उपयोग किया और अपने प्रगतिशील विचारों को दृढ़ता से तर्क देते हुए समाज के सामने प्रस्तुत किया। १९३६ में प्रगतिशील लेखक संघ के पहले सम्मेलन की अध्यक्षता करते हुए उन्होंने कहा कि लेखक स्वभाव से प्रगतिशील होता है और जो ऐसा नहीं है वह लेखक नहीं है। प्रेमचंद हिन्दी साहित्य के युग प्रवर्तक हैं। उन्होंने हिन्दी कहानी में आदर्शोन्मुख यथार्थवाद की एक नई परंपरी शुरू की।
मुंशी के विषय में विवाद

प्रेमचंद को प्रायः "मुंशी प्रेमचंद" के नाम से जाना जाता है। प्रेमचंद के नाम के साथ 'मुंशी' कब और कैसे जुड़ गया? इस विषय में अधिकांश लोग यही मान लेते हैं कि प्रारम्भ में प्रेमचंद अध्यापक रहे। अध्यापकों को प्राय: उस समय मुंशी जी कहा जाता था। इसके अतिरिक्त कायस्थों के नाम के पहले सम्मान स्वरूप 'मुंशी' शब्द लगाने की परम्परा रही है। संभवत: प्रेमचंद जी के नाम के साथ मुंशी शब्द जुड़कर रूढ़ हो गया। प्रोफेसर शुकदेव सिंह के अनुसार प्रेमचंद जी ने अपने नाम के आगे 'मुंशी' शब्द का प्रयोग स्वयं कभी नहीं किया। उनका यह भी मानना है कि मुंशी शब्द सम्मान सूचक है, जिसे प्रेमचंद के प्रशंसकों ने कभी लगा दिया होगा। यह तथ्य अनुमान पर आधारित है। लेकिन प्रेमचंद के नाम के साथ मुंशी विशेषण जुड़ने का प्रामाणिक कारण यह है कि 'हंस' नामक पत्र प्रेमचंद एवं 'कन्हैयालाल मुंशी' के सह संपादन मे निकलता था। जिसकी कुछ प्रतियों पर कन्हैयालाल मुंशी का पूरा नाम न छपकर मात्र 'मुंशी' छपा रहता था साथ ही प्रेमचंद का नाम इस प्रकार छपा होता था- (हंस की प्रतियों पर देखा जा सकता है)।

संपादक

मुंशी, प्रेमचंद

'हंस के संपादक प्रेमचंद तथा कन्हैयालाल मुंशी थे। परन्तु कालांतर में पाठकों ने 'मुंशी' तथा 'प्रेमचंद' को एक समझ लिया और 'प्रेमचंद'- 'मुंशी प्रेमचंद' बन गए। यह स्वाभाविक भी है। सामान्य पाठक प्राय: लेखक की कृतियों को पढ़ता है, नाम की सूक्ष्मता को नहीं देखा करता। आज प्रेमचंद का मुंशी अलंकरण इतना रूढ़ हो गया है कि मात्र मुंशी से ही प्रेमचंद का बोध हो जाता है तथा 'मुंशी' न कहने से प्रेमचंद का नाम अधूरा-अधूरा सा लगता है।

विरासत

प्रेमचंद ने अपनी कला के शिखर पर पहुँचने के लिए अनेक प्रयोग किए। जिस युग में प्रेमचंद ने कलम उठाई थी, उस समय उनके पीछे ऐसी कोई ठोस विरासत नहीं थी और न ही विचार और प्रगतिशीलता का कोई मॉडल ही उनके सामने था सिवाय बांग्ला साहित्य के। उस समय बंकिम बाबू थे, शरतचंद्र थे और इसके अलावा टॉलस्टॉय जैसे रुसी साहित्यकार थे। लेकिन होते-होते उन्होंने गोदान जैसे कालजयी उपन्यास की रचना की जो कि एक आधुनिक क्लासिक माना जाता है। उन्होंने चीजों को खुद गढ़ा और खुद आकार दिया। जब भारत का स्वतंत्रता आंदोलन चल रहा था तब उन्होंने कथा साहित्य द्वारा हिंदी और उर्दू दोनों भाषाओं को जो अभिव्यक्ति दी उसने सियासी सरगर्मी को, जोश को और आंदोलन को सभी को उभारा और उसे ताक़तवर बनाया और इससे उनका लेखन भी ताक़तवर होता गया। प्रेमचंद इस अर्थ में निश्चित रुप से हिंदी के पहले प्रगतिशील लेखक कहे जा सकते हैं। १९३६ में उन्होंने प्रगतिशील लेखक संघ के पहले सम्मेलन को सभापति के रूप में संबोधन किया था। उनका यही भाषण प्रगतिशील आंदोलन के घोषणा पत्र का आधार बना। प्रेमचंद ने हिन्दी में कहानी की एक परंपरा को जन्म दिया और एक पूरी पीढ़ी उनके कदमों पर आगे बढ़ी, ५०-६० के दशक में रेणु, नागार्जुन औऱ इनके बाद श्रीनाथ सिंह ने ग्रामीण परिवेश की कहानियाँ लिखी हैं, वो एक तरह से प्रेमचंद की परंपरा के तारतम्य में आती हैं। प्रेमचंद एक क्रांतिकारी रचनाकार थे, उन्होंने न केवल देशभक्ति बल्कि समाज में व्याप्त अनेक कुरीतियों को देखा और उनको कहानी के माध्यम से पहली बार लोगों के समक्ष रखा। उन्होंने उस समय के समाज की जो भी समस्याएँ थीं उन सभी को चित्रित करने की शुरुआत कर दी थी। उसमें दलित भी आते हैं, नारी भी आती हैं। ये सभी विषय आगे चलकर हिन्दी साहित्य के बड़े विमर्श बने। प्रेमचंद हिन्दी सिनेमा के सबसे अधिक लोकप्रिय साहित्यकारों में से हैं। सत्यजित राय ने उनकी दो कहानियों पर यादगार फ़िल्में बनाईं। १९७७ में शतरंज के खिलाड़ी और १९८१ में सद्गति। उनके देहांत के दो वर्षों बाद के सुब्रमण्यम ने १९३८ में सेवासदन उपन्यास पर फ़िल्म बनाई जिसमें सुब्बालक्ष्मी ने मुख्य भूमिका निभाई थी। १९७७ में मृणाल सेन ने प्रेमचंद की कहानी कफ़न पर आधारित ओका ऊरी कथा नाम से एक तेलुगू फ़िल्म बनाई जिसको सर्वश्रेष्ठ तेलुगू फ़िल्म का राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिला। १९६३ में गोदान और १९६६ में गबन उपन्यास पर लोकप्रिय फ़िल्में बनीं। १९८० में उनके उपन्यास पर बना टीवी धारावाहिक निर्मला भी बहुत लोकप्रिय हुआ था।
पुरस्कार व सम्मान
प्रेमचंद पर जारी डाकटिकट

संस्थान में भित्तिलेखप्रेमचंद की स्मृति में भारतीय डाकतार विभाग की ओर से ३१ जुलाई १९८० को उनकी जन्मशती के अवसर पर ३० पैसे मूल्य का एक डाक टिकट जारी किया गया। गोरखपुर के जिस स्कूल में वे शिक्षक थे, वहाँ प्रेमचंद साहित्य संस्थान की स्थापना की गई है। इसके बरामदे में एक भित्तिलेख है जिसका चित्र दाहिनी ओर दिया गया है। यहाँ उनसे संबंधित वस्तुओं का एक संग्रहालय भी है। जहाँ उनकी एक वक्षप्रतिमा भी है। प्रेमचंद की १२५वीं सालगिरह पर सरकार की ओर से घोषणा की गई कि वाराणसी से लगे इस गाँव में प्रेमचंद के नाम पर एक स्मारक तथा शोध एवं अध्ययन संस्थान बनाया जाएगा। प्रेमचंद की पत्नी शिवरानी देवी ने प्रेमचंद घर में नाम से उनकी जीवनी लिखी और उनके व्यक्तित्व के उस हिस्से को उजागर किया है, जिससे लोग अनभिज्ञ थे। यह पुस्तक १९४४ में पहली बार प्रकाशित हुई थी, लेकिन साहित्य के क्षेत्र में इसके महत्व का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि इसे दुबारा २००५ में संशोधित करके प्रकाशित की गई, इस काम को उनके ही नाती प्रबोध कुमार ने अंजाम दिया। इसका अँग्रेज़ी व हसन मंज़र का किया हुआ उर्दू अनुवाद भी प्रकाशित हुआ। उनके ही बेटे अमृत राय ने कलम का सिपाही नाम से पिता की जीवनी लिखी है। उनकी सभी पुस्तकों के अंग्रेज़ी व उर्दू रूपांतर तो हुए ही हैं, चीनी, रूसी आदि अनेक विदेशी भाषाओं में उनकी कहानियाँ लोकप्रिय हुई हैं।


http://hi.wikipedia.or

arvind shukla pic




















राजनीति विज्ञान सिविल सर्विसेज की परीक्षाओं के लिए भी पॉपुलर विषय


राजनीति (Politics) वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा लोगों का कोई समूह निर्णय लेता है। सामान्यत: यह शब्द असैनिक सरकारों के अधीन व्यवहार के लिये प्रयुक्त होता है किन्तु राजनीति मानव के सभी सामूहिक व्यवहारों (यथा, औद्योगिक, शैक्षणिक एवं धार्मिक संस्थाओँ में) में सदा से उपस्थित तत्व रहा है। राजनीति उन सामाजिक सम्बन्धों से बना है जो सत्ता और शक्ति लिये होते हैं।
                    राजनीति विज्ञान समाज और जीवन को समझने की दृष्टि ही नहीं देता, बल्कि करियर के लिहाज से भी खासा महत्वपूर्ण है। राजनीति विज्ञान पढकर आप विभिन्न क्षेत्रों में नौकरी की तलाश कर सकते हैं।
सिविल अभ्यर्थियों का मददगार

राजनीति विज्ञान सिविल सर्विसेज की परीक्षाओं के लिए भी पॉपुलर विषय है। इसका कारण यह है कि यह विषय जनरल स्टडीज का एक-चौथाई कोर्स कवर करता है। सिविल सर्विस परीक्षा में जनरल स्टडीज के 25 फीसदी प्रश्न राजनीतिशास्त्र से जुडे होते हैं। इसके अलावा, यह देश-विदेश की घटनाओं के विश्लेषण के साथ ही निबंध लेखन को भी आसान बनाता है।

कानून में एंट्री

पॉलिटिकल साइंस का बैकग्राउंड लॉ करने के लिए अच्छा माना जाता है। एलएलबी करके आप कानून के क्षेत्र में जा सकते हैं।
समाज सेवा
राजनीति विज्ञान ऐसा विषय है, जो समाज सेवा के लिए छात्रों को प्रेरित करता है। समाज सेवा के जरिए आप जन प्रतिनिधि बन सकते हैं और लोकतंत्र को मजबूत करने में अपनी जिम्मेदारी निभा सकते हैं। वैसे तो इसके लिए राजनीति का ज्ञान ही काफी है, लेकिन यदि आपने इस विषय के ग्रेजुएट हैं, तो आपबेहतर वक्ता या जनप्रतिनिधि बन सकते हैं।
राजनीतिक विश्लेषक
यदि आप राजनीति विज्ञान में पीजी हैं और राजनीतिक दर्शन, अंतरराष्ट्रीय संबंध, संविधान में दिलचस्पी है, तो आप राजनीतिक विश्लेषक भी बन सकते हैं। दूतावासों और स्वयंसेवी संगठनों में भी बेहतर अवसर हो सकते हैं। उच्च शिक्षा हासिल करके चुनाव विश्लेषक भी बना जा सकता है। इसके अलावा एमफिल या पीएचडी करने और किसी प्रोजेक्ट का अनुभव हासिल करने के बाद स्वतंत्र रूप से किसी सामाजिक विषय पर प्रोजेक्ट अपने हाथ में ले सकते हैं।
उच्च शिक्षा में संभावनाएं
यदि आप राजनीति विज्ञान से बीए ऑनर्स करने के बाद बीएड करते हैं, तो किसी सरकारी या गैर सरकारी संस्थानों में इस विषय के शिक्षक बन सकते हैं। वहीं एमए करने के बाद नेट व पीएचडी करके किसी भी कॉलेज में लेक्चरर या प्रोफेसर भी बन सकते हैं।
पत्रकारिता
राजनीति विज्ञान का ज्ञान आपको देश-विदेश की घटनाओं का विश्लेषण एवं समीक्षा करने में सक्षम बनाता है। आप मास कम्युनिकेशन और पत्रकारिता का कोर्स करके प्रिंट मीडिया और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में नौकरी तलाश कर सकते हैं।
और भी हैं विकल्प
आप राजनीति विज्ञान से ऑनर्स करने के बाद बैंक, न्यायिक सेवा, भारतीय प्रशासनिक सेवा, विदेश सेवा, मानवाधिकार, वकालत, एमबीए, रिसर्च इंस्टीट्यूट, व‌र्ल्ड ट्रेड ऑर्गनाइजेशन, बिजनेस एडमिनिस्ट्रेशन, पब्लिक रिलेशन आदि में भी नौकरी की तलाश कर सकते हैं।
कहां पढें
इसकी पढाई देश के प्रमुख विश्वविद्यालयों में होती है। अब यह आप पर निर्भर करता है कि आप किस विश्वविद्यालय में एडमिशन लेना चाहते हैं।
राजनीति शास्त्र में रोजगार ...........


राजनीति शास्त्र के अंतर्गत राजनीति के सिद्वांतों और आचरण तथा राजनीतिक प्रणाली और राजनैतिक व्यवहार का चित्रण तथा विश्लेषण किया जाता है। राजनैतिक विज्ञानी विश्व के सभी देशों और क्षेत्रों की राजनैतिक प्रक्रिया, प्रणाली और गतिशीलता का पता लगाने के लिए मानवीय तथा वैज्ञानिक परिदृश्यों और औजारों दोनों और दार्शनिकतावादी, सांस्थानिक, कार्यात्मक तथा प्रणालियों के अध्ययन जैसे व्यवस्थित दृष्टिकोणों का प्रयोग करते हैं।कई अन्य समाज शास्त्रों की तरह राजनीति शास्त्र ने भी केवल पिछली सदी में ही पूर्ण विषय क्षेत्र का दर्जा हासिल किया है। इसके बहुत से उप-क्षेत्र हैं। परंपरागत उप-क्षेत्रों में निम्नलिखित विषय क्षेत्र सम्मिलित हैं : (क) राजनैतिक सिद्वांत (ख) तुलनात्मक सरकार एवं राजनीति (ग) अंतर्राष्ट्रीय राजनीति/क्षेत्र अध्ययन (घ) लोक प्रशासन और (ड) राजनीतिक समाज शास्त्र। आधुनिक उप-क्षेत्र हैं : (क) मानवाधिकार (ख) लिंग अध्ययन (ग) शांति और संघर्ष समझौता अध्ययन (घ) नीति अध्ययन तथा (ड) गवर्नेंस अध्ययन।करीब ढाई सहस्त्राब्दि वर्ष पहले, राजनीति शास्त्र के पिता कहे जाने वाले अरस्तु (384-322 ईसा पूर्व) ने इसे 'मास्टर साइंस' करार दिया। लेकिन हाल के वर्षों में वैश्वीकरण, आर्थिक उदारीकरण और सूचना प्रौद्योगिकी की क्रांति के कारण एक झूठी सोच बनायी जा रही है कि राजनीति शास्त्र, इतिहास और समाज शास्त्र आदि जैसे समाज विज्ञान के विषय लाभदायक नहीं रह गए हैं। अतः उनके लिए अच्छा रहेगा यदि महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों में व्यावसायिक पाठ्यक्रम शुरू किए जाएं। इस नकारात्मकता के परिणामस्वरूप एक तरफ इन विषयों को लेने वालों की संख्या कम हो गई है दूसरी तरफ सामाजिक विज्ञान स्नातकों के अंदर हीन भावना जन्म लेने लगती है। इस आलेख में इस बात पर जोर दिया गया है कि शिक्षा का मौलिक कार्य केवल अध्ययनकर्ताओं का कौशल और सूचना ज्ञान को बढ़ाना नहीं है बल्कि मानवीकरण को प्रोत्साहन देना तथा समाज में अमानवतावादी ताकतों के खिलाफ इसे एक मजबूत स्तंभ के रूप में खड़ा करना है। समाजशास्त्र से संबंधित विषय वास्तव में यह कार्य करते हैं। इसके अलावा ''ऊर्जा अर्जन'' के तौर पर भी ये समान रूप में अच्छे हैं। किसी व्यक्ति के जीवन को सफल बनाने में वास्तव में यदि कोई कमी रह जाती है तो वह कल्पनाशक्ति और दृढ़निश्चयता के अभाव के कारण होता है। राजनीति शास्त्र के छात्रों के लिए उपलब्ध् कुछ रोजगार के अवसरों का विवरण निम्नानुसार है। सर्वप्रथम यह याद रखना महत्वपूर्ण है कि किसी भी विषय में स्नातक अधिकतर रोजगारों के लिए योग्य होता है, जब तक कि संबंधित पद के लिए किसी विशिष्ट अपेक्षा की आवश्यकता की बात नहीं कही जाती। लेकिन समाज विज्ञानों के स्नातकों के लिए, उनके तर्क एवं विश्लेषणात्मक कौशलों, सम्प्रेषण योग्यता, मौखिक और लिखित दोनों तथा अपने समाज, इतिहास और संस्कृति के ज्ञान तथा संविधान, गवर्नेंस ढांचे तथा राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय घटनाक्रमों के बारे में उनकी जागरुकता के कारण, अन्य स्नातकों की अपेक्षा कहीं ज्यादा अवसर होते हैं। इससे कहीं अधिक जो समाज विज्ञानों में उन्नत डिग्री प्राप्त करते हैं, वे डॉटा विश्लेषण और कम्प्यूटर का प्रयोग भी सीखते हैं। नीचे दिए गए कुछ ऐसे महत्वपूर्ण कॅरिअर्स हैं जिनके लिए राजनीति शास्त्र अत्यधिक सफल रहा है।प्रशासनिक सेवाएं :राजनीति शास्त्र के छात्रों के विचार में उनके लिए सबसे अधिक सुस्पष्ट कॅरिअर सरकार में है, जहां केंद्र और राज्य सरकार स्तर पर विभिन्न प्रकार के रोजगार के विकल्प हैं। केंद्रीय स्तर पर ''स्वप्न रोजगारों'' में आईएएस, आईपीएम, आईएफएस तथा संबद्व सेवाएं सम्मिलित हैं। इन सर्वोच्च पदों के लिए भर्ती हेतु संघ लोक सेवा आयोग (www.upsc.gov.in), नई दिल्ली हर साल सिविल सेवा परीक्षा आयोजित करता है।राज्य प्रशासनिक पदों में बीडीओ, तहसीलदार तथा कई अन्य महत्वपूर्ण पद शामिल हैं। राज्य स्तर के रोजगार प्राप्त करने के वास्ते व्यक्ति विशेष को प्रांतीय सिविल सेवा (पीसीएस) परीक्षाएं उत्तीर्ण करनी होती हैं। यह परीक्षाएं हर राज्य के लोक सेवा आयोगों द्वारा आयोजित की जाती हैं। हालांकि कोई भी व्यक्ति उनकी वेबसाइटों पर उपलब्ध् कोई भी दो स्वीकृत विषयों में परीक्षा दे सकता है, लेकिन राजनीति शास्त्र को इन परीक्षाओं में सर्वाधिक स्कोरिंग पेपर माना जाता है। इसके अलावा राजनीति शास्त्र के छात्रों को अन्य छात्रों की अपेक्षा सामान्य अध्ययन, निबंध् के पेपरों तथा साक्षात्कार में इसका अधिक लाभ मिलता है क्योंकि इनमें ज्यादातर प्रश्न राजनीति शास्त्र के क्षेत्र से होते हैं। इसलिए यह कहना आश्चर्यजनक नहीं होगा कि बहुत से आईएएस टॉपर्स ने राजनीति शास्त्र को अपने वैकल्पिक विषयों में से एक विषय के रूप में लिया था। उदाहरण के लिए वर्ष 2000 में सिविल सेवा परीक्षा में सर्वोच्च स्थान पर आने वाले 20 उम्मीदवारों में से 8 ने राजनीति शास्त्र को एक वैकल्पिक विषय के रूप में लिया था।शिक्षण :राजनीति शास्त्र के छात्रों के लिए शिक्षण एक अन्य लोकप्रिय व्यवसाय है। पचहत्तर प्रतिशत राजनीति शास्त्र में डिग्री धारक देश में शैक्षणिक संस्थानों में कार्यरत हैं और इनमें से ज्यादातर राजनीति शास्त्र विषय को पढ़ाते हैं। स्कूल स्तर पर समाजशास्त्र/भारतीय संविधान अध्ययन का मौलिक स्तर है। यदि आप राजनीति शास्त्र/समाज शास्त्र के शिक्षक बनना चाहते हैं तो आपके पास राजनीति शास्त्र में स्नातक डिग्री के साथ बी.एड योग्यता होनी चाहिए।कॉलेज और विश्वविद्यालय स्तर पर लेक्चरशिप के लिए राजनीति शास्त्र में मास्टर डिग्री (55% अंक) जमा लेक्चरशिप हेतु पात्रता परीक्षा (नेट परीक्षा) उत्तीर्ण की होनी चाहिए। यह परीक्षा वर्ष में दो बार विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (www.ugc.ac.in) द्वारा आयोजित की जाती है। हालांकि एम.फिल./पीएच.डी छात्रों के लिए नेट अनिवार्य नहीं है लेकिन अन्य छात्रों की अपेक्षा वरीयता पाने के लिए किसी भी व्यक्ति को उन्नत डिग्री हासिल करना उचित रहेगा।अनुसंधान :भारत में कई ऐसे प्रमुख विश्वविद्यालय और अनुसंधान संस्थान हैं जो भारतीय या विदेशी वित्त पोषण एजेंसियों, दोनों द्वारा प्रायोजित राजनीति शास्त्र से संबंधित विभिन्न अनुसंधान परियोजनाएं संचालित करते हैं।उन्हें इन नीति संगत परियोजनाओं के लिए अनुसंधान विश्लेषकों/अनुसंधानकर्ताओं/रिसर्च एसोसिएट्स की आवश्यकता होती है। यदि आपके पास राजनीति शास्त्र में कोई उन्नत डिग्री है तो आप इन पदों के लिए आवेदन कर सकते हैं। इसके लिए आप प्रमुख भारतीय विश्वविद्यालयों और अनुसंधान संस्थानों की वेबसाइटें देख सकते हैं :-जैसे कि रक्षा अध्ययन एवं विश्लेषण संस्थान (www.idsa.in) शांति और संघर्ष अध्ययन संस्थान (www.ipcs.org), विकासशील अध्ययन संस्थान (www.csds.in), सेंटर फॉर पालिसी रिसर्च (www.cprindia.org), ऑब्जर्वर रिसर्च फाउण्डेशन (www.observerindia.com), संघर्ष प्रबंध् संस्थान (www.stap.org/satporgtp/icm/index.html). रणनीतिक और सुरक्षा अध्ययन मंच (www.stratmag.com), पीआरएस लैजिस्लेटिव रिसर्च (www.prsindia.org), सेंटर फॉर लैजिस्लेटिव रिसर्च एंड एडवोकेसी (सीएल आरए), नई दिल्ली (www.clraindia.org) आदि। इन अनुसंधान पदों के अलावा आप अपनी पोस्ट ग्रैजुएशन के बाद इन तथा कई अन्य संस्थानों में विभिन्न इंटर्नशिप कार्यक्रमों के लिए भी आवेदन कर सकते हैं।राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (NHRC, http://nhrc.nic.in), नई दिल्ली तथा संसदीय अध्ययन ब्यूरो के प्रशिक्षण इन्टर्नशिप कार्यक्रम विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं।विधि :राजनीति शास्त्र के छात्रों के लिए विधि एक बहुत लोकप्रिय विषय रहा है। हालांकि विधि महाविद्यालयों में प्रवेश के लिए राजनीति शास्त्र का होना आवश्यक नहीं है लेकिन प्रवेश परीक्षा की तैयारी या परीक्षा में अन्यों की अपेक्षा अच्छे प्रदर्शन के लिए आप इन विषयों के साथ अधिक फायदेमंद हो सकते हैं क्योंकि राजनीति शास्त्र के तहत कई विधिक विषयों का भी अध्ययन कराया जाता है। विधि में डिग्री के उपरांत कॅरिअर का मार्ग एकदम भिन्न हो जाता है और कुछ तो अन्य व्यवसायों में चले जाते हैं लेकिन ज्यादातर विधि व्यवसाय से ही जुड़ जाते हैं। इनमें निजी प्रेक्टिस, न्यायिक सेवा, सार्वजनिक प्रतिष्ठानों या निजी एजेंसियों के अधिवक्ता के रूप में कार्य करना शामिल है।पत्रकारिता :राजनीति शास्त्र से संबंधित छात्रों के लिए संचार के कुछ क्षेत्रों में रोजगार की अच्छी संभावनाएं होती हैं लेकिन भारत में 1980 के दशक के शुरू में इसमें वृद्धि हुई। समाचार- पत्रों, पत्रकारिताओं और कुछ हद तक इलैक्ट्रॉनिक समाचार माध्यमों को हमेशा ऐसे सक्षम व्यक्तियों की आवश्यकता रहती है जिन्हें राष्ट्रीय/अंतर्राष्ट्रीय राजनीतिक घटनाक्रमों की अच्छी समझ के साथ-साथ, उनमें सम्प्रेषण कौशल भी हो। आज की प्रतिकूल टीका-टिप्पणी के पत्रकारिता के दौरे में उन व्यक्तियों के लिए अधिक अवसर हैं जिन्हें राजनीति की समझ है तथा वे समस्याओं और घटनाक्रमों पर शोध् करके सुस्पष्ट और विस्तृत समाचार टिप्पणियां लिख सकते हैं। लेकिन पत्रकारिता में जाने के इच्छुक राजनीति शास्त्र के छात्रों को सलाह दी जाती है कि वे किसी मान्यता प्राप्त विश्वविद्यालय से पत्रकारिता और जनसंचार में कोई डिप्लोमा या डिग्री प्राप्त कर लें।अंतर्राष्ट्रीय और राष्ट्रीय संगठन :हाल के वर्षों में सरकारी और निजी दोनों तरह के अंतर्राष्ट्रीय संगठनों का जबर्दस्त विस्तार हुआ है। इसके साथ ही भारत में घरेलू संगठनों की संख्या में भी, विशेषकर 1990 के दशक के आरंभ में, काफी वृद्धि हुई है। चाहे यह संयुक्त राष्ट्र हो या इसकी विशेषीकृत एजेंसियां हैं या पर्यावरणीय, मानवाधिकार, आर्थिक और राजनीतिक रुचि वाले समूह हैं, इन सबको प्रबंधन, शोध् और अन्य सरकारी और निजी संस्थानों के साथ संपर्क के लिए व्यक्तियों की आवश्यकता होती है। इस क्षेत्र में रोजगार के लिए हालांकि राजनीति शास्त्र में डिग्री एक उत्कृष्ट योग्यता है, लेकिन छात्र विदेशी भाषा कौशल या क्षेत्र विशेष में विशेषज्ञता हासिल करके अपना कुछ स्थाई विकास कर सकते हैं। राजनीति शास्त्र से जुड़े रोजगारों के बारे में जानकारी के लिए आप इंटरनेट, स्थानीय, क्षेत्रीय और राष्ट्रीय समाचार- पत्रों, एम्प्लायमेंट न्यूज्/रोजगार समाचार देख सकते हैं तथा अपने कॉलेज/विश्वविद्यालय के सूचना और मार्गनिर्देशन ब्यूरो से संपर्क कर सकते हैं।राजनीति शास्त्र में संप्रति रोजगार के अवसर ही नहीं, बल्कि इसका भविष्य भी उदीयमान है। प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने कई बार आधुनिक शिक्षा में क्रांति की बात दोहराई है तथा नौंवी पंचवर्षीय योजना (2007- 2012) को ''राष्ट्रीय शिक्षा योजना'' की संज्ञा दी गई है। इस योजना के अंतर्गत शिक्षा के लिए अभूतपूर्व व्यय देखने को मिलेगा। अकेले केंद्र सरकार 30 नए केंद्रीय और विश्वस्तरीय विश्वविद्यालय, शिक्षा की दृष्टि से पिछड़े जिलों में 370 कॉलेज, प्रत्येक विकास खण्ड में 6000 उच्च श्रेणी के विद्यालय, 8 भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आईआईटी), 7 भारतीय प्रबंध् संस्थान (आईआईएम) के साथ-साथ कई अन्य शिक्षण संस्थान खोलने जा रही है। यहां यह उल्लेख करना समीचीन होगा कि आईआईटी दिल्ली जैसे कुछ आईआईटीज ने हाल में अपने समाज विज्ञान विभागों में राजनीति शास्त्र को एक विषय के रूप में शुरू किया है।लगभग सभी भारतीय और विदेशी विश्वविद्यालय राजनीति शास्त्र में मास्टर और अनुसंधान स्तर के पाठ्यक्रम संचालित कर रहे हैं। नीचे कुछेक प्रमुख विश्वविद्यालयों की सूची दी गई है जो भारत में राजनीति शास्त्र/अंतर्राष्ट्रीय संबंधों में डिग्री कार्यक्रम संचालित कर रहे हैं:विश्वविद्यालय का नाम संचालित डिग्री वेबसाइट पताजवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, एमए, एम.फिल. www.jnu.ac.in/ नई दिल्ली और पीएच.डीदिल्ली विश्वविद्यालय, नई दिल्ली एमए, एम.फिल. www.du.ac.in/और पीएच.डीहैदराबाद विश्वविद्यालय, हैदराबाद एमए, एम.फिल. www.uohyd.ernet.inऔर पीएच.डीइलाहाबाद विश्वविद्यालय, इलाहाबाद एमए, एम.फिल. www.allduniv.ac.in और पीएच.डीअलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय, बीए, एमए, एम.फिल. www.amu.ac.inअलीगढ़ और पीएच.डीबनारस हिंदू विश्वविद्यालय, एमए, एम.फिल. www.bhu.ac.inवाराणसी और पीएच.डीपांडिचेरी विश्वविद्यालय, पुड्डुचेरी एमए, एम.फिल. www.pondiuni.orgऔर पीएच.डीपंजाब विश्वविद्यालय, चंडीगढ़ एमए, एम.फिल. www.puchd.ac.inऔर पीएच.डी पूर्वोत्तर पर्वतीय विश्वविद्यालय, एमए, एम.फिल. www.nehu.ac.inशिलांग और पीएच.डीउत्कल विश्वविद्यालय, भुवनेश्वर एमए, एम.फिल. http://utkal.utkalऔर पीएच.डी. university.orgजादवपुर विश्वविद्यालय, कोलकाता बीए, एमए, एम.फिल. और पीएच.डी www.jadavpur.eduमद्रास विश्वविद्यालय, चेन्नै एमए, एम.फिल. http://www.unom.और पीएच.डी. ac.in/सूची सांकेतिक है- हालांकि उच्चतर शिक्षा के क्षेत्र में सब कुछ अच्छा नहीं चल रहा है। उदाहरण के लिए विश्व बैंक द्वारा किए गए हाल के अध्ययन में यह अनुमान लगाया गया है कि भारत में 10 से 25 प्रतिशत सामान्य कॉलेज स्नातक ही रोजगार के लिए उपयुक्त होते हैं। अतः हमारे देश को डिग्री निर्माण उद्योग बनाने की बजाए गुणवत्तापूर्ण शिक्षा के क्षेत्र में सुदृढ़ करने की बहुत जरूरत है, क्योंकि नियोक्ता लोगों को चुनते हैं, डिग्रियों को नहीं। अपनी शिक्षा के साथ-साथ कामकाज और सामुदायिक गतिविधिओं के जरिए आप जो कौशल और ज्ञान अर्जित करते हैं उसका नियोक्ताओं के निर्णयों पर जबर्दस्त प्रभाव पड़ता है।

http://www.rojgarsamachar.gov.in/careerdetails.asp?id=397

जनसंख्या विस्फोट

भारत में 1950 के दशक में प्रति महिला बच्चों का औसत छह था.

लेकिन तब भारत ने जनसंख्या विस्फोट की समस्या को समझा और जनसंख्या नियंत्रण के सुनियोजित प्रयास करने वाला पहला देश बना.
तब से आधी सदी बाद आज भारत में जन्म दर घट के आधी रह गई है, लेकिन देश के सामने सबसे बड़ी चुनौती अब भी भारी जनसंख्या ही है.

जनसंख्या के मामले में भारत से आगे एकमात्र देश चीन है.
भारत की जनसंख्या में हर साल ऑस्ट्रेलिया की आबादी के बराबर लोग पैदा लेते हैं. और यह मान लिया गया है कि जनसंख्या में स्थिरता लाने का भारत का प्रयास नाकाम रहा है.
एक अरब
आस्था नामक बच्ची क़रीब ढ़ाई साल की है. वह दिल्ली में अपने माता-पिता और दादा-दादी के साथ रहती है.
प्रधानमंत्री वाजपेयी को भरोसा कि जनसंख्या वृद्धि पर काबू पाया जाएगा

आस्था की प्रसिद्धि एक विशेष कारण से है. वर्ष 2000 में उसे औपचारिक तौर पर एक अरबवाँ भारतीय घोषित किया गया था.
उसके जन्म के बाद भारत सरकार ने जनसंख्या नियंत्रण के काम में और ज़ोर लगाया, लेकिन देश की आबादी बढ़ कर 1.05 अरब हो चुकी है.
ताज़ा जनसंख्या वृद्धि मुख्य तौर पर हिंदीभाषी इलाक़ों में हुई है.
उत्तर प्रदेश के छोटे से शहर दादरी में मोहम्मद उमर अपनी पत्नी आसिया बेगम के साथ रहते हैं.
सरकारी और ग़ैरसरकारी एजेंसियों द्वारा लगातार की स्तरों पर प्रसारितजनसंख्या नियंत्रण के संदेशों को इस युगल ने लगता है गंभीरता से नहीं लिया, क्योंकि उनके 24 बच्चे हैं.
बच्चे ही बच्चे
आसिया बेगम को जहाँ तक याद है, उन्होंने 29 बच्चों को जन्म दिया. उनके पाँच बच्चे चल बसे.
वह पहली बार भारत के आज़ाद होने के बाद 1947 में माँ बनीं. उसके बाद बच्चों को जन्म देने का सिलसिला बन पड़ा.
मेरे सारे बच्चे कामकाज में लगे हैं. परिवार चलाने में कोई परेशानी नहीं होती
चौबीस बच्चों के पिता मोहम्मद उमर

आसिया कहती हैं कि उनके इस्लाम धर्म में जनसंख्या नियंत्रण के साधनों का इस्तेमाल करने की मनाही है.
उन्होंने कहा, “ऑपरेशन कराना पाप है. यदि मैं ऑपरेशन कराती हूँ तो मरने के बाद मेरी कब्र पर कोई प्रार्थना नहीं की जाएगी.”
आसिया का मानना है कि स्वास्थ्य संबंधी गंभीर ख़तरे का सामना कर रहा कोई व्यक्ति ही ऑपरेशन करा सकता है.
आसिया और उमर के 24 बच्चे निश्चय ही कोई सामान्य बात नहीं है, लेकिन बड़े परिवार भारत में सामान्य हैं.
समस्याएँ

जनसंख्या विशेषज्ञ उषा राय ने कहती हैं कि भारत में जनसंख्या नियंत्रण की नीति अब भी सटीक नहीं है और परिवार नियोजन संबंधी बुनियादी उपायों की जानकारी भी सही ढ़ंग से प्रसारित नहीं हो पाई है.
उन्होंने कहा, “अब भी ऐसे अनेक लोग हैं जिन्हें कंडोम या निरोध की जानकारी नहीं है.”
उषा ने कहा, “यह एक बड़ी समस्या है.”
विशेषज्ञों का मानना है कि निरक्षरता जनसंख्या नियंत्रण की राह में एक बड़ा अवरोध है.
दादरी के थाने में काम करने वाले मोहम्मद उमर कहते हैं कि 24 बच्चे का बाप होने के बावजूद उन्हें इसके चलते कोई परेशानी नहीं महसूस होती.
उन्होंने कहा, “मेरे सारे बच्चे कामकाज में लगे हैं. परिवार चलाने में कोई परेशानी नहीं होती.”
उमर कहते हैं, “हमारे ऊपर कोई कर्ज़ नहीं है. हमारा ख़ुशहाल परिवार है.”
यह पूछने पर कि अब तो उन्होंने पूर्ण विराम लगाने का इरादा कर लिया होगा, मोहम्मद उमर पलट कर पूछते हैं, “आपको क्या लगता है, मैं सठिया गया हूँ?”
http://vimi.wordpress.com

भारतीय जीवन बीमा निगम

भारतीय जीवन बीमा निगम, भारत की सबसे बड़ी जीवन बीमा कंपनी है, और देश की सबसे बड़ी निवेशक कंपनी भी है

यह पूरी तरह से भारत सरकार के स्वामित्व में है
इसकी स्थापना सन् १९५६ में हुई

इसका मुख्यालय भारत की वित्तीय राजधानी मुंबई में है
भारतीय जीवन बीमा निगम के ८ आंचलिक कार्यालय और १०१ संभागीय कार्यालय भारत के विभिन्न भागों में स्थित हैं
इसके लगभग २०४८ कार्यालय देश के कई शहरों में स्थित हैं और इसके १० लाख से ज्यादा एजेंट भारत भर में फैले है
ओरिएण्टल जीवन बीमा कंपनी भारत की पहली बीमा कंपनी थी जी सन् १८१८ में कोलकाता में बिपिन दासगुप्ता एवं अन्य लोगों के द्वारा स्थापित की गयी

बॉम्बे म्यूचुअल लाइफ अस्युरंस सोसाइटी, जो १८७० में गठित हुई, देश की पहली बीमा प्रदाता इकाई थी
अन्य बीमा कंपनियां जो स्वतंत्रता के पहले गठित हुईं -



भारत बीमा कंपनी - १८९६

यूनाइटेड कंपनी - १९०६

नेशनल इंडियन - १९०६

नेशनल इंश्योरेंस - १९०६

कोऑपरेटिव अस्युरंस - १९०६

हिंदुस्तान कोऑपरेटिव - १९०७

इंडियन मर्केंटाइल

जनरल अस्युरंस

स्वदेशी लाइफ
भारतीय संसद ने १९ जून १९५६ को भारतीय जीवन बीमा विधेयक पारित किया

जिसके तहत ०१ सितम्बर १९५६ को भारतीय जीवन बीमा निगम अस्तित्व में आया
भारतीय जीवन बीमा व्यापार का राष्ट्रीयकरण औद्योगिक नीति संकल्प १९५६ का परिणाम है

भारतीय रेल

भारतीय रेल (आईआर) एशिया का सबसे बड़ा रेल नेटवर्क है तथा एकल प्रबंधनाधीन यह विश्व का दूसरा सबसे बड़ा रेल नेटवर्क है। यह १५० वर्षों से भी अधिक समय तक भारत के परिवहन क्षेत्र का मुख्य संघटक रहा है। यह विश्व का सबसे बड़ा नियोक्ता है, इसके १६ लाख से भी अधिक कर्मचारी हैं। यह न केवल देश की मूल संरचनात्‍मक आवश्यकताओं को पूरा करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है अपितु बिखरे हुए क्षेत्रों को एक साथ जोड़ने में और देश राष्‍ट्रीय अखंडता का भी संवर्धन करता है। राष्‍ट्रीय आपात स्थिति के दौरान आपदा ग्रस्त क्षेत्रों में राहत सामग्री पहुंचाने में भरतीय रेल अग्रणी रहा है।
अर्थव्यस्था में अंतर्देशीय परिवहन का रेल मुख्य माध्यम है। यह ऊर्जा सक्षम परिवहन मोड, जो बड़ी मात्रा में जनशक्ति के आवागमन के लिए बड़ा ही आदर्श एवं उपयुक्त है, बड़ी मात्रा में वस्तुओं को लाने ले जाने तथा लंबी दूरी की यात्रा के लिए अत्यन्त उपयुक्त हैं।
       यह देश की जीवन धारा हैं और इसके सामाजिक-आर्थिक विकास के लिए इनका महत्वपूर्ण स्थान है। सुस्थापित रेल प्रणाली देश के दूरतम स्‍थानों से लोगों को एक साथ मिलाती है और व्यापार करना, दृश्य दर्शन, तीर्थ और शिक्षा संभव बनाती है। यह जीवन स्तर सुधारती है और इस प्रकार से उद्योग और कृषि का विकासशील त्वरित करने में सहायता करता है।भारत में रेलों की शुरुआत 1853 में अंग्रेजों द्वारा अपनी प्राशासनिक सुविधा के लिये की गयी थी परंतु आज भारत के ज्यादातर हिस्सों में रेलवे का जाल बिछा है और रेल परिवहन का सस्ता और मुख्य साधन बन चुकी है।सन् 1853 में बहुत ही मामूली शुरूआत से जब पहली अप ट्रेन ने मुंबई से थाणे तक (34 कि.मी. की दूरी) की दूरी को तय किया था, अब भारतीय रेल विशाल नेटवर्क में विकसित हो चुका है इसके 63,465 कि.मी.मार्ग की लंबाई पर 7,133 स्‍टेशन फैले हुए हैं। उनके पास 7,910 इंजनों का बेड़ा हैं; 42,441 सवारी सेवाधान, 5,822 अन्‍य कोच यान, 2,22,379 वैगन (31 मार्च, 2005 की स्थिति के अनुसार)। भारतीय रेल बहुल गेज प्रणाली है; जिसमें ब्राड गेज (1.676 मि मी) मीटर गेज (1.000 मि मी); और नैरो गेज (762 मि मी. और 610 मि. मी.) है। उनकी पटरियों की लंबाई क्रमश: 89,771 कि.मी; 15,684 कि.मी. और 3,350 कि.मी. है। जबकि गेजवार मार्ग की लंबाई क्रमश: 47,749 कि.मी; 12,662 कि.मी. और 3,054 कि.मी. है। कुल चालू पटरियों की लंबाई 84,260 कि.मी. है जिसमें से 67,932 कि.मी. ब्राड गेज, 13,271 कि.मी. मीटर गेज, और 3,057 कि.मी. नैरो गेज है। लगभग मार्ग किलो मीटर का 28 प्रतिशत, चालू पटरी 39 प्रतिशत और 40 प्रतिशत कुल पटरियों का विद्युतीकरण किया जा चुका है।

भारतीय रेल के दो मुख्‍य खंड हैं भाड़ा/माल वाहन और सवारी/भाड़ा खंड लगभग दो तिहाई राजस्‍व जुटाता है जबकि शेष सवारी यातायात से आता है। भाड़ा खंड के भीतर थोक यातायात का योगदान लगभग 95 प्रतिशत से अधिक कोयले से आता है। वर्ष 2002-03 से सवारी और भाड़ा ढांचा यौक्तिकीकरण करने की प्रक्रिया में वातानुकूलित प्रथम वर्ग का सापेक्ष सूचकांक को 1400 से घटाकर 1150 कर दिया गया है एसी-2 टायर का सापेक्ष सूचकांक 720 से 650 कर दिया गया है। एसी प्रथम वर्ग के किराए में लगभग 18 प्रतिशत की कटौती की गई है और एसी-2 टायर का 10 प्रतिशत घटाया गया है। 2005-06 में माल यातायात में वस्‍तुओं की संख्‍या 4000 वस्‍तुओं से कम करके 80 मुख्‍य वस्‍तु समूह रखा गया है और अधिक 2006-07 में 27 समूहों में रखा गया है। भाड़ा प्रभारित करने के लिए वर्गों की कुल संख्‍या को घटाकर 59 से 17 कर दिया गया है।
रेल...बचपन से ही जब ये नाम सुनता एक अजीब सा रोमांच शरीर में दौड़ने लगता.. रेलगाड़ी में बैठकर दूर शहरों में रहने वालों से मिलने की खुशी और दूसरा अपर बर्थ पर कूदते-फांदते धमाचौकड़ी मनाने की यादें...ट्रेन में यदा-कदा अब भी सफ़र करते हैं...लेकिन जनाब अब वो पहले वाली बात कहां...आनलाइन रिजर्वेशन, तत्काल सुविधाओं ने रेल की यात्रा अब कहीं ज़्यादा आसान बना दी है...बस अंटी में माल होना चाहिए....

भारतीय रेलवे के कुछ सुने-अनसुने तथ्य बताता हूं...ये तो आपको पता ही होगा कि भारतीय रेलवे विश्व में सबसे बड़ा नियोक्ता (नौकरी देने वाला संगठन) है...रेलवे के पास सोलह लाख कर्मचारी हैं..एक करोड़ तीस लाख मुसाफिर रोज़ भारतीय रेलवे की 14,300 ट्रेनों के माध्यम से यात्रा करते हैं...देश में करीब सात हज़ार रेलवे स्टेशन हैं...भारतीय रेलवे के पास 63,028 किलोमीटर लंबा रेल-ट्रैक
है...16,300 किलोमीटर ट्रैक पर बिजली से चलने वाली ट्रेन दौड़ सकती हैं...भारतीय ट्रेनें रोज़ कुल मिलाकर जितना सफ़र करती हैं वो पृथ्वी से चांद की दूरी से साढ़े तीन गुणा ज़्यादा है....आप ये जानकर हैरान होंगे कि आज़ादी से पहले रेलवे को चलाने के लिए 42 कंपनियां काम करती थीं...


भारतीय रेल...दिलचस्प तथ

पहली पैसेंजर ट्रेन कब चली...16 अप्रैल 1853, बॉम्बे और ठाणे के बीच

पहला रेलवे पुल...डैपूरी वायाडक्ट (मुंबई-ठाणे रूट पर)

पहली रेलवे सुरंग...पारसिक टनल

पहली अंडरग्राउंड रेलवे...कलकत्ता मेट्रो
पहला कंप्यूटरीकृत रेलवे रिज़र्वेशन सिस्टम शुरू हुआ... नई दिल्ली (1986)
पहली इलैक्ट्रिक ट्रेन...3 फरवरी 1925 को बॉम्बे वीटी और कुर्ला के बीच
ट्रेन में टॉयलेट सुविधा कब शुरू हुई...फर्स्ट क्लास (1891), लोअर क्लास (1907)

सबसे छोटे नाम वाला स्टेशन...आईबी (उड़ीसा)

सबसे बड़े नाम वाला स्टेशन... श्री वेंकटानरसिम्हाराजूवरियापेटा (तमिलनाडु)

व्यस्तम रेलवे स्टेशन...लखनऊ (64 ट्रेन की रोज़ आवाजाही)

सबसे लंबी दूरी तय करने वाली ट्रेन... जम्मू तवी और कन्याकुमारी स्टेशनों के बीच चलने वाली हिमसागर एक्सप्रेस( 74 घंटे 55 मिनट में 3751 किलोमीटर)

सबसे छोटी दूरी वाला रूट...नागपुर से अजनी (3 किलोमीटर)

बिना स्टॉप सबसे लंबी दूरी वाली ट्रेन...त्रिवेंद्रम राजधानी (528 किलोमीटर, 6.5 घंटे में)

सबसे लंबा रेलवे पुल...सोन नदी पर बना नेहरू सेतु (100,44 फीट)

सबसे लंबा प्लेटफॉर्म...ख़ड़गपुर (2733 फीट)
सबसे लंबी रेलवे सुरंग....कोंकण रेल लाइन पर कारबुडे सुरंग (6.5 किलोमीटर)
सबसे पुराना चालू इंजन... फेयरी क्वीन (1855)

सबसे तेज़ ट्रेन...भोपाल शताब्दी (140 किलोमीटर प्रति घंटा)

भारत में स्टीम इंजनों का निर्माण 1972 के बाद बंद हुआ...

सबसे छोटा शटल रूट भूल गए(किन्ही दो स्टेशनों के बीच में एक दिन में सबसे ज्यादा चक्कर लगाने वाली शटल)????


एट जंक्शन से कोंच(उ.प्र.),दूरी १३ कि.मी..... हरदिन ६ फेरे, शायद अलग से बनाई गई भारत की सबसे छोटी रेल लाइन भी यही है.. :)
भारतीय रेल




प्रकार रेल मंत्रालय, भारत सरकार का विभागीय उपक्रम

स्थापना १६ अप्रैल, १८५३, १९५५ में राष्ट्रीकृत

मुख्यालय नई दिल्ली, भारत

मुख्य पदाधिकारी केन्द्रीय रेलवे मंत्री:

ममता बैनर्जी

रेलवे राज्य मंत्री(V):

आर.वेलु

रेलवे राज्य मंत्री (R):

नारानभाई जे रथवा

अध्यक्ष, रेलवे बोर्ड:

कल्याण सी जेना

सेवित क्षेत्र भारत

उद्योग रेलवे तथा लोकोमोटिव

उत्पाद रेल यातायात, माल-यातायात, अन्य सेवाएं

कुल कारोबार INR ७२,६५५ करोड़ (२००८) (~18.16B USD)[१]

कर्मचारी ~१,२०,००,०००

मातृ कंपनी रेल मंत्रालय (भारत)

Divisions १६ रेलवे मण्डल (कोंकण रेलवे के अलावा)

वेबसाइट भारतीय रेल


जय हिंद...

अकबर

अकब (१५ अक्तूबर, १५४२-२७ अक्तूबर, १६०५) मुगल वंश का तीसरा शासक था। अकबर को अकबर-ऐ-आज़म (अर्थात अकबर महान) के नाम से भी जाना जाता है। सम्राट अकबर मुगल साम्राज्य के संस्थापक जहीरुद्दीन मुहम्मद बाबर का पोता और नासिरुद्दीन हुमायूं और हमीदा बानो का पुत्र था। बाबर का वंश तैमूर और मंगोल नेता चंगेज खां से था अर्थात उसके वंशज तैमूर लंग के खानदान से थे और मातृपक्ष का संबंध चंगेज खां से था।[१

 बादशाहोंमें अकबर ही एक ऐसा बादशाह था, जिसे हिन्दू मुस्लिम दोनों वर्गों का बराबर प्यार और सम्मान मिला। उसने हिन्दू-मुस्लिम संप्रदायों के बीच की दूरियां कम करने के लिए दीन-ए-इलाही नामक धर्म की स्थापना की। उसका दरबार सबके लिए हर समय खुला रहता था। उसके दरबार में मुस्लिम सरदारों की अपेक्षा हिन्दू सरदार अधिक थे। अकबर ने हिन्दुओं पर लगने वाला जज़िया ही नहीं समाप्त किया ,बल्कि ऐसे अनेक कार्य किए जिनके कारण हिन्दू और मुस्लिम दोनों उसके अकबर का जन्म पूर्णिमा के दिन हुआ था इसलिए उनका नाम बदरुद्दीन मोहम्मद अकबर रखा गया था। बद्र का अर्थ होता है पूर्ण चंद्रमा और अकबर उनके नाना शेख अली अकबर जामी के नाम से लिया गया था। कहा जाता है कि काबुल पर विजय मिलने के बाद उनके पिता हुमायूँ ने बुरी नज़र से बचने के लिए अकबर की जन्म तिथि एवं नाम बदल दिए थे।  किवदंती यह भी है कि भारत की जनता ने उनके सफल एवं कुशल शासन के लिए अकबर नाम से सम्मानित किया था। अरबी भाषा मे अकबर शब्द का अर्थ "महान" या बड़ा होता है। अकबर का जन्म राजपूत शासक राणा अमरसाल के महल में हुआ था यह स्थान वर्तमान पाकिस्तान केसिंध प्रांत में है। बाबर का वंश तैमूर और मंगोल नेता चंगेज खां से था यानि उसके वंशज तैमूर लंग के खानदान से थे और मातृपक्ष का संबंध चंगेज खां से था। इस प्रकार अकबर की धमनियों में एशिया की दो प्रसिद्ध जातियों, तुर्क और मंगोल के रक्त का सम्मिश्रण था।  अकबर के माँ-बाप अपनी जान बचाने फ़ारस भाग गये और अकबर अपने पिता के छोटे भाइयों के संरक्षण में रहा। पहले वह कुछ दिनों कंधार में और फिर १५४५ सेकाबुल में रहा। हुमायूँ की अपने छोटे भाइयों से बराबर ठनी ही रही इसलिये चाचा लोगों के यहाँ अकबर की स्थिति बंदी से कुछ ही अच्छी थी। यद्यपि सभी उसके साथ अच्छा व्यवहार करते थे और शायद दुलार प्यार कुछ ज़्यादा ही होता था। किंतु अकबर पढ़ लिख नहीं सका वह केवल सैन्य शिक्षा ले सका।
जब तक अकबर आठ वर्ष का हुआ, जन्म से लेकर अब तक उसके सभी वर्ष भारी अस्थिरता में निकले थे जिसके कारण उसकी शिक्षा-दीक्षा का सही प्रबंध नहीं हो पाया था। अब हुमायूं का ध्यान इस ओर भी गया। लगभग नवम्बर, १५४७ में उसने अकबर की शिक्षा प्रारंभ करने के लिए काबुल में एक आयोजन किया। किंतु ऐन मौके पर अकबर के खो जाने पर वह समारोह दूसरे दिन सम्पन्न हुआ। मुल्ला जादा मुल्ला असमुद्दीन अब्राहीम को अकबर का शिक्षक नियुक्त किया गया।मगर मुल्ला असमुद्दीन अक्षम सिद्ध हुए। तब यह कार्य पहले मौलाना बामजीद को सौंपा गया, मगर जब उन्हें भी सफलता नहीं मिली तो मौलाना अब्दुल कादिर को यह काम सौंपा गया।मगर कोई भी शिक्षक अकबर को शिक्षित करने में कामयाब न हुआ। दरअसल, पढ़ने-लिखने में अकबर की रुचि नहीं थी, उसकी रुचि कबूतर बाजी, घुड़सवारी, और कुत्ते पालने में अधिक थी।
खोये हुए राज्य को पुनः प्राप्त करने के लिये अकबर के पिता हुमायूँ के अनवरत प्रयत्न अंततः सफल हुए और वह सन्‌ १५५५ में हिंदुस्तान पहुँच सका किंतु अगले ही वर्ष सन्‌ १५५६ में राजधानी दिल्ली में उसकी मृत्यु हो गई और गुरदासपुर के कलनौर नामक स्थान पर १४ वर्ष की आयु में अकबर का राजतिलक हुआ। अकबर का संरक्षक बैराम खान को नियुक्त किया गया जिसका प्रभाव उस पर १५६० तक रहा। तत्कालीन मुगल राज्य केवल काबुल से दिल्ली तक ही फैला हुआ था। हेमु के नेतृत्व में अफगान सेना पुनः संगठित होकर उसके सम्मुख चुनौती बनकर खड़ी थी। अपने शासन के आरंभिक काल में ही अकबर यह समझ गया कि सूरी वंश को समाप्त किए बिना वह चैन से शासन नहीं कर सकेगा। इसलिए वह सूरी वंश के सबसे शक्तिशाली शासक सिकंदर शाह सूरी पर आक्रमण करने पंजाब चल पड़ा।
दिल्ली की सत्ता-बदल

अकबर का चित्र
दिल्ली का शासन उसने मुग़ल सेनापति तारदी बैग खान को सौंप दिया। सिकंदर शाह सूरी अकबर के लिए बहुत बड़ा प्रतिरोध साबित नही हुआ। कुछ प्रदेशो मे तो अकबर के पहुंचने से पहले ही उसकी सेना पीछे हट जाती थी। अकबर की अनुपस्थिति मे हेमू विक्रमादित्य ने दिल्ली और आगरा पर आक्रमण कर विजय प्राप्त की। ६ अक्तूबर १५५६ को हेमु ने स्वयं को भारत का महाराजा घोषित कर दिया। इसी के साथ दिल्ली मे हिंदू राज्य की पुनः स्थापना हुई।
सत्ता की वापसी
दिल्ली की पराजय का समाचार जब अकबर को मिला तो उसने तुरन्त ही बैरम खान से परामर्श कर के दिल्ली की तरफ़ कूच करने का इरादा बना लिया। अकबर के सलाहकारो ने उसेकाबुल की शरण में जाने की सलाह दी। अकबर और हेमु की सेना के बीच पानीपत मे युद्ध हुआ। यह युद्ध पानीपत का द्वितीय युद्ध के नाम से प्रसिद्ध है। संख्या में कम होते हुए भी अकबर ने इस युद्ध मे विजय प्राप्त की। इस विजय से अकबर को १५०० हाथी मिले जो मनकोट के हमले में सिकंदर शाह सूरी के विरुद्ध काम आए। सिकंदर शाह सूरी ने आत्मसमर्पण कर दिया और अकबर ने उसे प्राणदान दे दिया।
चहुँओर विस्तार
दिल्ली पर पुनः अधिकार जमाने के बाद अकबर ने अपने राज्य का विस्तार करना शुरू किया और मालवा को १५६२ में, गुजरात को १५७२ में, बंगाल को १५७४ में, काबुल को १५८१ में,कश्मीर को १५८६ में, और खानदेश को १६०१ में मुग़ल साम्राज्य के अधीन कर लिया। अकबर ने इन राज्यों में एक एक राज्यपाल नियुक्त किया। अकबर यह नही चाहता था की मुग़ल साम्राज्य का केन्द्र दिल्ली जैसे दूरस्थ शहर में हो; इसलिए उसने यह निर्णय लिया की मुग़ल राजधानी को फतेहपुर सीकरी ले जाया जाए जो साम्राज्य के मध्य में थी। कुछ ही समय के बाद अकबर को राजधानी फतेहपुर सीकरी से हटानी पड़ी। कहा जाता है कि पानी की कमी इसका प्रमुख कारण था। फतेहपुर सीकरी के बाद अकबर ने एक चलित दरबार बनाया जो कि साम्राज्य भर में घूमता रहता था इस प्रकार साम्राज्य के सभी कोनो पर उचित ध्यान देना सम्भव हुआ। सन १५८५ में उत्तर पश्चिमी राज्य के सुचारू राज पालन के लिए अकबर ने लाहौर को राजधानी बनाया। अपनी मृत्यु के पूर्व अकबर ने सन १५९९ में वापस आगरा को राजधानी बनाया और अंत तक यहीं से शासन संभाला।

प्रशासन


मुगल ध्वज
सन्‌ १५६० में अकबर ने स्वयं सत्ता संभाल ली और अपने संरक्षक बैरम खां को निकाल बाहर किया। अब अकबर के अपने हाथों में सत्ता थी लेकिन अनेक कठिनाइयाँ भी थीं। जैसे - शम्सुद्दीन अतका खान की हत्या पर उभरा जन आक्रोश (१५६३), उज़बेक विद्रोह (१५६४-६५) और मिर्ज़ा भाइयों का विद्रोह (१५६६-६७) किंतु अकबर ने बड़ी कुशलता से इन समस्याओं को हल कर लिया। अपनी कल्पनाशीलता से उसने अपने सामंतों की संख्या बढ़ाई। सन्‌ १५६२ में आमेर के शासक से उसने समझौता किया - इस प्रकार राजपूत राजा भी उसकी ओर हो गये। इसी प्रकार उसने ईरान से आने वालों को भी बड़ी सहायता दी। भारतीय मुसलमानों को भी उसने अपने कुशल व्यवहार से अपनी ओर कर लिया। धार्मिक सहिष्णुता का उसने अनोखा परिचय दिया - हिन्दू तीर्थ स्थानों पर लगा कर जज़िया हटा लिया गया (सन्‌ १५६३)। इससे पूरे राज्यवासियों को अनुभव हो गया कि वह एक परिवर्तित नीति अपनाने में सक्षम है। इसके अतिरिक्त उसने जबर्दस्ती युद्धबंदियो का धर्म बदलवाना भी बंद करवा दिया।

मुद्रा


तत्कालीन चाँदी की मुद्रा
अकबर ने अपने शासनकाल में ताँबेंचाँदी एवं सोनें की मुद्राएँ प्रचलित की। इन मुद्राओं के पृष्ठ भाग में सुंदर इस्लामिक छपाई हुआ करती थी। अकबर ने अपने काल की मुद्राओ में कई बदलाव किए। उसने एक खुली टकसाल व्यवस्था की शुरुआत की जिसके अन्दर कोई भी व्यक्ति अगर टकसाल शुल्क देने मे सक्षम था तो वह किसी दूसरी मुद्रा अथवा सोने से अकबर की मुद्रा को परिवर्तित कर सकता था। अकबर चाहता था कि उसके पूरे साम्राज्य में समान मुद्रा चले। [४]

धर्म


अकबर इबादत-खाने में ईसाई धर्माप्रचारकों के साथ, १६०५ ईस्वी
अकबर एक मुसलमान था, पर दूसरे धर्म एवं संप्रदायों के लिए भी उसके मन में आदर था । जैसे-जैसे अकबर की आयु बदती गई वैसे-वैसे उसकी धर्म के प्रति रुचि बढ़ने लगी। उसे विशेषकर हिंदू धर्म के प्रति अपने लगाव के लिए जाना जाता हैं। उसने अपने पूर्वजो से विपरीत कई हिंदू राजकुमारियों से शादी की। इसके अलावा अकबर ने अपने राज्य में हिन्दुओ को विभिन्न राजसी पदों पर भी आसीन किया जो कि किसी भी भूतपूर्व मुस्लिम शासक ने नही किया था। वह यह जान गया था कि भारत में लम्बे समय तक राज करने के लिए उसे यहाँ के मूल निवासियों को उचित एवं बराबरी का स्थान देना चाहिये।

हिन्दू धर्म पर प्रभाव

हिन्दुओं पर लगे जज़िया १५६२ में अकबर ने हटा दिया, किंतु १५७५ में मुस्लिम नेताओं के विरोध के कारण वापस लगाना पड़ा , हालांकि उसने बाद में नीतिपूर्वक वापस हटा लिया। जज़िया कर गरीब हिन्दुओं को गरीबी से विवश होकर इस्लाम की शरण लेने के लिए लगाया जाता था। यह मुस्लिम लोगों पर नहीं लगाया जाता था।  इस कर के कारण बहुत सी गरीब हिन्दू जनसंख्या पर बोझ पड़ता था, जिससे विवश हो कर वे इस्लाम कबूल कर लिया करते थे। फिरोज़ शाह तुगलक ने बताया है, कि कैसे जज़िया द्वारा इस्लाम का प्रसार हुआ था। 
अकबर द्वारा जज़िया और हिन्दू तीर्थों पर लगे कर हटाने के सामयिक निर्णयों का हिन्दुओं पर कुछ खास प्रभाव नहीं पड़ा, क्योंकि इससे उन्हें कुछ खास लाभ नहीं हुआ, क्योंकि ये कुछ अंतराल बाद वापस लगा दिए गए। अकबर ने बहुत से हिन्दुओं को उनकी इच्छा के विरुद्ध भी इस्लाम ग्रहण करवाया था इसके अलावा उसने बहुत से हिन्दू तीर्थ स्थानों के नाम भी इस्लामी किए, जैसे १५८३ में प्रयाग को इलाहाबाद किया गया।अकबर के शासनकाल में ही उसके एक सिपहसालार हुसैन खान तुक्रिया ने हिन्दुओं को बलपूर्वक भेदभाव दर्शक बिल्ले  उनके कंधों और बांहों पर लगाने को विवश किया था।
इतिहासकार दशरथ शर्मा बताते हैं, कि हम अकबर को उसके दरबार के इतिहास और वर्णनों जैसे अकबरनामा, आदि के अनुसार महान कहते हैं।यदि कोई अन्य उल्लेखनीय कार्यों की ओर देखे, जैसे दलपत विलास, तब स्पष्ट हो जाएगा कि अकबर अपने हिन्दू सामंतों से कितना अभद्र व्यवहार किया करता था। अकबर के नवरत्न राजा मानसिंह द्वारा विश्वनाथ मंदिर के निर्माण को अकबर की अनुमति के बाद किए जाने के कारण हिन्दुओं ने उस मंदिर में जाने का बहिष्कार कर दिया। कारण साफ था, कि राजा मानसिंह के परिवार के अकबर से वैवाहिक संबंध थे।  अकबर के हिन्दू सामंत उसकी अनुमति के बगैर मंदिर निर्माण तक नहीं करा सकते थे। बंगाल में राजा मानसिंह ने एक मंदिर का निर्माण बिना अनुमति के आरंभ किया, तो अकबर ने पता चलने पर उसे रुकवा दिया, और १५९५ में उसे मस्जिद में बदलने के आदेश दिए।
अकबर के लिए आक्रोश की हद एक घटना से पता चलती है। हिन्दू किसानों के एक नेता राजा राम ने अकबर के मकबरे, सिकंदरा, आगरा को लूटने का प्रयास किया, जिसे स्थानीय फ़ौजदार, मीर अबुल फजल ने असफल कर दिया। इसके कुछ ही समय बाद १६८८ में राजा राम सिकंदरा में दोबारा प्रकट हुआ  और शाइस्ता खां के आने में विलंब का फायदा उठाते हुए, उसने मकबरे पर दोबारा सेंध लगाई, और बहुत से बहुमूल्य सामान, जैसे सोने, चाँदी, बहुमूल्य कालीन, चिराग, इत्यादि लूट लिए, तथा जो ले जा नहीं सका, उन्हें बर्बाद कर गया। राजा राम और उसके आदमियों ने अकबर की अस्थियों को खोद कर निकाल लिया एवं जला कर भस्म कर दिया, जो कि मुस्लिमों के लिए घोर अपमान का विषय था। 

हिंदु धर्म से लगाव

बाद के वर्षों में अकबर को अन्य धर्मों के प्रति भी आकर्षण हुआ। अकबर का हिंदू धर्म के प्रति लगाव केवल मुग़ल साम्राज्य को ठोस बनाने के ही लिए नही था वरन उसकी हिंदू धर्म में व्यक्तिगत रुचि थी। हिंदू धर्म के अलावा अकबर को शिया इस्लाम एवं ईसाई धर्म में भी रुचि थी। ईसाई धर्म के मूलभूत सिद्धांत जानने के लिए उसने एक बार एक पुर्तगाली ईसाई धर्म प्रचारक को गोआ से बुला भेजा था। अकबर ने दरबार में एक विशेष जगह बनवाई थी जिसे इबादत-खाना (प्रार्थना-स्थल) कहा जाता था, जहाँ वह विभिन्न धर्मगुरुओं एवं प्रचारकों से धार्मिक चर्चाएं किया करता था। उसका यह दूसरे धर्मों का अन्वेषण कुछ मुस्लिम कट्टरपंथी लोगों के लिए असहनीय था। उन्हे लगने लगा था कि अकबर अपने धर्म से भटक रहा है। इन बातों में कुछ सच्चाई भी थी, अकबर ने कई बार रुढ़िवादी इस्लाम से हट कर भी कुछ फैसले लिए, यहाँ तक कि १५८२ में उसने एक नये संप्रदाय की ही शुरुआत कर दी जिसे दीन-ए-इलाही यानी ईश्वर का धर्म कहा गया।

दीन-ए-इलाही

दीन-ए-इलाही नाम से अकबर ने एक नया धर्म बनाया जिसमें सभी धर्मो के मूल तत्वों को डाला, इसमे प्रमुखतः हिंदू एवं इस्लाम धर्म थे। इनके अलावा पारसीजैन एवं ईसाई धर्म के मूल विचारों को भी सम्मिलित किया। हालांकि इस धर्म के प्रचार के लिए उसने कुछ अधिक उद्योग नहीं किये केवल अपने विश्वस्त लोगो को ही इसमे सम्मिलित किया। कहा जाता हैं कि अकबर के अलावा केवल राजा बीरबल ही मृत्यु तक इस के अनुयायी थे। दबेस्तान-ए-मजहब के अनुसार अकबर के पश्चात केवल १९ लोगो ने इस धर्म को अपनाया।
कालांतर में अकबर ने एक नए पंचांग की रचना की जिसमे कि उसने एक ईश्वरीय संवत को आरम्भ किया जो उसके ही राज्याभिषेक के दिन से प्रारम्भ होता था। उसने तत्कालीन सिक्कों के पीछे ‘‘अल्लाह-ओ-अकबर’’ लिखवाया जो अनेकार्थी शब्द था। अकबर का शाब्दिक अर्थ है "महान" और ‘‘अल्लाह-ओ-अकबर’’ शब्द के दो अर्थ हो सकते थे "अल्लाह महान हैं " या "अकबर ही अल्लाह हैं"।  दीन-ए-इलाही सही मायनो में धर्म न होकर एक आचार संहिता के समान था। इसमे भोग, घमंड, निंदा करना या दोष लगाना वर्जित थे एवं इन्हे पाप कहा गया। दया, विचारशीलता, और संयम इसके आधार स्तम्भ थे।

अकबर के नवरत्न


राजा बीरबल
निरक्षर होते हुई भी अकबर को कलाकारों एवं बुद्धिजीवियो से विशेष प्रेम था। उसके इसी प्रेम के कारण अकबर के दरबार में नौ(९) अति गुणवान दरबारी थे जिन्हें अकबर के नवरत्न के नाम से भी जाना जाता है।
  • अबुल फजल (१५५१ - १६०२ ) ने अकबर के काल को कलमबद्ध किया था। उसने अकबरनामा की भी रचना की थी। इसने ही आइन-ए-अकबरी भी रचा था।
  • फैजी (१५४७ - १५९५) अबुल फजल का भाई था। वह फारसी में कविता करता था। राजा अकबर ने उसे अपने बेटे के गणित शिक्षक के पद पर नियुक्त किया था।
  • मिंया तानसेन अकबर के दरबार में गायक थे। वह कविता भी लिखा करते थे।
  • राजा बीरबल (१५२८ - १५८३) दरबार के विदूषक और अकबर के सलाहकार थे। ये परम बुद्धिमान कहे जाते हैं। इनके अकबर के संग किस्से आज भी कहे जाते हैं।
  • राजा टोडरमल अकबर के वित्त मंत्री थे। इन्होंने विश्व की प्रथम भूमि लेखा जोखा एवं मापन प्रणाली तैयार की थी।
  • राजा मान सिंह आम्बेर (जयपुर) के कच्छवाहा राजपूत राजा थे। वह अकबर की सेना के प्रधान सेनापति थे। इनकी बहन जोधाबाई अकबर की पटरानी थी।
  • अब्दुल रहीम खान-ऐ-खाना एक कवि थे और अकबर के संरक्षक बैरम खान के बेटे थे।
  • फकीर अजिओं-दिन अकबर के सलाहकार थे।
  • मुल्लाह दो पिअज़ा अकबर के सलाहकार थे।

फिल्म एवं साहित्य में

अकबर का व्यक्तित्व बहुचर्चित रहा है। इसलिए भारतीय साहित्य एवं सिनेमा ने अकबर से प्रेरित कई पात्र रचे गए।

२००८ में प्रर्दशित फिल्म जोधा-अकबर का पोस्टर
  • २००८ में आशुतोष गोवरिकर निर्देशित फिल्म जोधा अकबर में अकबर एवं उनकी पत्नी की कहानी को दर्शाया गया है। अकबर एवं जोधा बाई का पात्र क्रमशः ऋतिक रोशन एवं ऐश्वर्या राय ने निभाया है।
  • १९६० में बनी फिल्म मुग़ल-ए-आज़म भारतीय सिनेमा की एक लोकप्रिय फिल्म है। इसमें अकबर का पात्र पृथ्वीराज कपूर ने निभाया था। इस फिल्म में अकबर के पुत्र सलीम की प्रेम कथा और उस कारण से पिता पुत्र में पैदा हुए द्वंद को दर्शाया गया है। सलीम की भूमिका दिलीप कुमार एवं अनारकली की भूमिका मधुबाला ने निभायी थी।
  • १९९० में जी टीवी ने अकबर-बीरबल नाम से एक धारवाहिक प्रस्तुत किया था जिसमे अकबर का पात्र हिंदी अभिनेता विक्रम गोखले ने निभाया था।
  • नब्बे के दशक में संजय खान कृत धारावाहिक अकबर दी ग्रेट (अंग्रेज़ी: Akbar the Great) दूरदर्शन पर प्रर्दशित किया गया था
  • प्रसिद्ध अंग्रेजी साहित्यकार सलमान रशदी के उपन्यास डी एन्चैन्ट्रेस ऑफ़ फ्लोरेंस (अंग्रेज़ी:The Enchantress of Florence) में अकबर एक मुख्य पात्र है।

इन्हें भी देखें

प्रशंसक बने।
http://hi.wikipedia.org